कैब : विखंडन नहीं समावेशन
लोकसभा के नागरिकता संशोधन विधेयक पर मोहर लगाने पर प्रधानमंत्री के ‘खुशी’ जताने पर बरबस, पाकिस्तानी कवियित्री फहमिदा रियाज की बहु-उद्यृत नज्म ‘तुम बिल्कुल हम जैसे निकले’ याद आ रही है।
कैब : विखंडन नहीं समावेशन |
इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि भारतीय संविधान के निर्माता, डॉ. आंबेडकर के परिनिर्वाण दिवस के पालन के फौरन बाद, मोदी राज ने उनके बनाए संविधान की आत्मा के भी तर्पण का संसदीय कर्मकांड शुरू कर दिया है। बहुमत की तानाशाही के बल पर, लोक सभा से नागरिकता की परिभाषा में ही मौलिक परिवर्तन पर मोहर लगवाने के बाद, मोदी-शाह की जोड़ी को राज्य सभा में बहुमत मैनेज करने से रोकने वाला कोई नहीं है। इस तरह पाकिस्तान की तरह एक धर्माधारित राज्य के नरक में प्रवेश का दरवाजा संसद ने तो एक तरह से खोल ही दिया है।
अचरज की बात नहीं है कि धारा-370 को खत्म करने की संविधान पर अपनी ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ की ही तरह, मोदी-शाह सरकार ने संविधान की आत्मा पर ही इस ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ के लिए भी, खुल्लम-खुल्ला कानूनी छल का सहारा लिया है। इतना ही नहीं, इस बार भी उसी तरह से यह सरकार जो वह कर रही है और करना चाहती है, उसे उससे ठीक उल्टा ही बताने की प्रचार तिकड़म का भी सहारा लिया गया है। यह दूसरी बात है कि यह प्रचार इस तरह संयोजित किया गया है कि पर्दा भी पड़ा रहे और उसके पीछे की सचाई भी झांकती रहे। इसकी जरूरत सबसे बढ़कर इसलिए है कि उनके लिए, गांधी-आंबेडकर के देश के धर्मनिरपेक्ष संविधान के तंबू में बहुसंख्यकवाद का ऊंट घुसाना जितना जरूरी है, उससे भी ज्यादा जरूरी अपने बहुसंख्यकवादी वोट बैंक को यह दिखाना है कि उनके ऊंट को इस तंबू में बाकायदा बैठाया जा चुका है।
दूसरे शब्दों में उन्हें अपने बहुसंख्यकवादी वोट बैंक को यह दिखाना है कि वे मुसलमानों को पराया या कमतर नागरिक बना रहे हैं और इस तरह, इस देश में बहुसंख्यक-हिन्दुओं को विशेषाधिकार दिला रहे हैं! जो सत्ताधारी पार्टी झारखंड के चुनाव में खुद को अयोध्या में मस्जिद वाली जगह पर ही राम मंदिर बनवाने वाली पार्टी के रूप में पेश करने के जरिए, बेशर्मी से सुप्रीम कोर्ट के ताजातरीन फैसले को भुनाने की भरपूर और प्रधानमंत्री के स्तर तक से कोशिश कर रही हो, उससे नागरिकता कानून में संशोधन के पीछे दूसरी किसी मंशा की उम्मीद करना, जान-बूझकर सचाई से मुंह मोड़ना ही होगा। वास्तव में इस संबंध में किसी शक की गुंजाइश ही न छोड़ते हुए, गृहमंत्री अमित शाह ने लोक सभा में नागरिकता साोंधन विधेयक पर सात घंटे लंबी बहस के अपने जवाब में, अपने सांसदों से बंगाली हिन्दुओं को खासतौर पर यह समझाने की अपील की थी कि नागरिकता कानून मे संशोधन उनके ही फायदे के लिए है। जाहिर है कि नागरिकता कानून में इस संशोधन का मकसद बंगलादेश, पाकिस्तान तथा अफगानिस्तान से, पिछले अनेक वर्षो में अवैध रूप से भारत में आए लोगों में, मुसलमानों को बाहर रखते हुए, हिन्दुओं के लिए ही नागरिकता हासिल करना आसान बनाना है और इस श्रेणी में सिख, बौद्ध, जैन के साथ पारसियों तथा ईसाइयों का नाम, सिर्फ शोभा के लिए जोड़ दिया गया है।
यह खुल्लम-खुल्ला कानून के स्तर पर सांप्रदायिक विभाजन का मामला है, जिसकी इजाजत आजादी की लंबी लड़ाई की पृष्ठभूमि में 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया भारत का संविधान नहीं देता है। संबंधित विधेयक पेश करते हुए, इसमें कुछ भी संविधान के खिलाफ या अल्पसंख्यकों के खिलाफ न होने के बार-बार दावे करने के बावजूद, अमित शाह ने यह कहकर कि अगर धर्म के आधार पर 1947 में देश का विभाजन नहीं हुआ होता, तो इस संशोधन की जरूरत नहीं पड़ती, एक प्रकार से यह मान लिया कि यह सांप्रदायिक आधार पर देश विभाजन के अधूरेपन को पूरा करने की ही कोशिश का हिस्सा है। अचरज की बात नहीं है कि ऐसा करने के लिए वे इस सचाई को दबा ही देना चाहते हैं कि सांप्रदायिक आधार पर पाकिस्तान भले अलग हुआ था, भारतीय गणराज्य का गठन धर्मनिरपेक्ष आधार पर ही हुआ था। मुसलमानों के खासे बड़े हिस्से का भारत में ही बने रहना और उससे भी बढ़कर मुस्लिम बहुल कश्मीर का भारत के साथ आना, इसी का सबूत था।
देश के दुर्भाग्यपूर्ण विभाजन के बाद, पाकिस्तान में तो जिन्ना के मुस्लिम राष्ट्र के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया गया, लेकिन भारत में हिन्दू राष्ट्र बनवाने की हिन्दू महासभा-आरएसएस की मुहिम को राष्ट्रीय आंदोलन की समावेशी राष्ट्रवाद की उस परंपरा ने हरा दिया, जिसके सबसे अडिग और सबसे असरदार जनरल गांधी थे। बहरहाल, आज, केंद्र में सत्ता पर अपने नियंत्रण और संसद के अपने शिकंजे में होने के चलते, सावरकर-गोलवालकर की वही धारा, आंबेडकर के संविधान को व्यावहारिक मायनों में बेमानी बनाने के जरिए, गांधी को हराने के रास्ते पर तेजी से बढ़ रही है। मिसाल के तौर पर अल्पंख्यकों की दशा की चिंता पाकिस्तान, अफगानिस्तान तथा बांगलादेश पर ही खत्म हो जाती है और श्रीलंका, नेपाल, म्यांमार, जैसे पड़ोसी देशों के अल्पसंख्यकों की दशा में उनकी कोई दिलचस्पी ही नजर नहीं आती है। क्यों? क्योंकि यहां ‘मुसलमानों द्वारा उत्पीड़ित’ का नैरेटिव ही नहीं बनता है। यहां तक कि पाकिस्तान के अहमदिया, अफगानिस्तान के हाजरा आदि भी इस चिंता के दायरे में नहीं आते हैं क्योंकि उनकी चिंता करना तो, मुस्लिमविरोधी-संदेश को ही कमजोर करेगा।
शाह जितने जोर से एनआरसी के जरिए ‘घुसपैठियों को चुन-चुनकर निकालने’ का गर्जन करते आए हैं, उतने ही जोर से अब सीएबी से ‘शरणार्थियों के लिए दरवाजा खोलने’ का आश्वासन दे रहे हैं। पर दोनों में फर्क क्या है? बिना कागजात के हिन्दू आदि आए तो शरणार्थी और मुसलमान आए तो घुसपैठिया! इस पर भी दावा यह कि यह मुसलमानों के खिलाफ नहीं है। यह तो सिर्फ गैर-मुसलमानों के हक में है। क्या 2002 के दंगों में भूमिका के लिए बरसों तक, मोदी को छोड़कर बाकी दसियों हजार लोगों को अमेरिका का वीसा दिया जाना, मोदी के खिलाफ फैसला नहीं था? फिर भी, नागरिक अधिकार विधेयक पर संसद में बहस और उसके बाहर प्रदर्शनों की झड़ी इसका इशारा करती है कि सावरकर-जिन्ना के हाथों गांधी की यह हार भी अंतिम नहीं है। गांधी तो वैसे भी अकेले हों तब भी मैदान छोड़ने वाले नहीं थे, आज तो भारत की उनकी कल्पना के साथ जनता का बहुमत है।
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