शिक्षा : वैश्विक रैंकिंग में पिछड़ी
एक तरफ केंद्र सरकार नई शिक्षा नीति के क्रियान्वयन को लेकर माथापच्ची में जुटी हुई है वहीं दूसरी तरफ जेएनयू के छात्रों का फीस बढ़ोतरी को लेकर शुरू हुआ धरना-प्रदर्शन नई शिक्षा नीति के विरोध तक पहुंच गया है।
शिक्षा : वैश्विक रैंकिंग में पिछड़ी |
इन छात्रों को धीरे-धीरे अन्य विश्वविद्यालयों व संगठनों, लोगों का भी समर्थन मिलना शुरू हो गया है। पिछले दिनों राजधानी के विभिन्न विश्वविद्यालयों के छात्रों और शिक्षकों द्वारा नई शिक्षा नीति सहित अन्य मुद्दों के खिलाफ प्रदशर्न भी किया गया। विरोध करने वालों का कहना है कि प्रारूप कागजों पर तो काफी अच्छा व प्रभावशाली दिखाई दे रहा है, लेकिन अपने यहां की शिक्षा व्यवस्था की जो स्थिति है, उसमें क्या उसे अमलीजामा पहनाया जा सकता है? इसमें दो राय नहीं कि यह सचमुच सबसे बड़ा सवाल है और यही वजह है कि इसके क्रियान्वयन को लेकर संदेह व्यक्त किया जा रहा है।
नई शिक्षा नीति की मोटी-मोटी बातों पर गौर करें तो उसके मुताबिक मानव संसाधन विकास मंत्रालय (एमएचआरडी) का नाम अब शिक्षा मंत्रालय होगा और यह भी सच है कि यह बदलाव शिक्षा क्षेत्र के लोग बहुत पहले से चाहते थे। इसके अलावा, प्राइवेट स्कूल कहे जाएंगे, पब्लिक नहीं। नई व्यवस्था में स्कूली शिक्षा में तीन से 18 साल के बच्चों को शामिल किया गया है, यह भी एक प्रगतिशील कदम है। करिकुलर और एक्स्ट्रा करिकुलर का भेद समाप्त करने का प्रस्ताव भी आशाजनक है। लेकिन सुधार के लिए और जो जरूरी कदम उठाये जाने की बात की गई है और जिसकी जरूरत है, शिक्षा से जुड़ी समस्याओं को ध्यान में रखते हुए क्या मौजूदा स्थिति में यह संभव है? शिक्षा से जुड़ी प्रमुख समस्याओं में सबसे पहले प्राथमिक शिक्षा की समस्या की ही बात करें तो अपने भारत में लगभग छह लाख स्कूल के कमरों की कमी है और शिक्षकों का भी यही हाल है।
कम शिक्षकों के कारण कई कक्षाओं पर अत्यधिक भार रहता है, ऐसे में सभी बच्चों पर ध्यान देना संभव नहीं होता। शिक्षा के अधिकार कानून में प्रत्येक 35 विद्यार्थियों पर एक सिर्फ शिक्षक की नियुक्ति का प्रावधान है। लेकिन इस लक्ष्य को अभी हासिल नहीं किया जा सका है। इसी तरह बुनियादी ढांचे में कमी की बात करें तो बिजली, पानी, शौचालय, चारदीवारी, लाइब्रेरी, कंप्यूटर जैसी बहुत कम ही स्कूलों में सही हैं। सरकारी स्कूलों में शौचालय होने के बावजूद साफ़-सफाई और पानी की कमी है, जिसके चलते भारी संख्या में लड़कियों स्कूल ही नहीं जातीं। मिड डे मील और मुफ्त शिक्षा के बावजूद क़रीब 29 फीसद छात्र बिना पांचवीं कक्षा की पढ़ाई पूरी किए ही स्कूल छोड़ देते हैं। विशेषतौर पर ग्रामीण इलाकों में शिक्षा की गुणवत्ता में काफी कमी है। शिक्षकों के ग़्ौरज़िम्मेदाराना रवैये के चलते सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को ज्ञान नहीं बढ़ पाता। शिक्षकों के समर्पण भाव से पढ़ाने में कमी आई है। एनुअल स्टेटस आप एजुकेशन रिपोर्ट (असर) के मुताबिक़ ग्रामीण क्षेत्रों में सरकार ने शिक्षा क्षेत्र के बुनियादी ढांचे में भले निवेश किया है, लेकिन सफलता नहीं मिली है।
माध्यमिक स्तर की शिक्षा में स्कूलों की कमी, पाठ्यक्रमों की उपलब्धता न होना और सामग्री के मामले में भी फिसड्डी रहना और पर्याप्त विकल्प नहीं होना परेशानी का कारण है। इसके साथ-साथ लाखों शिक्षक संविदा पर काम कर रहे हैं और उनमें से आधे प्रशिक्षित भी नहीं हैं। केवल 60 प्रतिशत बच्चे 12वीं कक्षा से आगे की पढ़ाई जारी रखना चाहते हैं। पारिवारिक विवशताओं और सामाजिक हालात की वज़ह से बच्चे साधारण रोज़गार की ओर चले जाते हैं। इसी तरह उच्च शिक्षा का हाल है। साल 2017 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय की स्थायी कमेटी ने भारत में उच्च शिक्षा के समक्ष चुनौतियां और समस्याएं पर अपनी रिपोर्ट में संसाधनों की कमी का जिक्र किया था। यूजीसी के बजट का लगभग 65 फीसद केंद्रीय विश्वविद्यालयों और उनके कॉलेजों द्वारा उपयोग किया जाता है, जबकि राज्य विश्वविद्यालयों और उनके संबद्ध कॉलेजों को शेष 35 फीसद ही मिलता है। इतना ही नहीं, कुल स्वीकृत शिक्षण पदों में से 35 फीसद प्रोफेसर, 46 फीसद एसोसिएट प्रोफेसर और क़रीब 26 फीसद सहायक प्रोफेसर के पद खाली हैं। इसी तरह, रोज़गारपरक कौशल के अभाव की भी बात की गई है और बताया गया है कि तकनीकी शिक्षा के छात्रों में रोज़गारपरक कौशल का अभाव देखा गया है। भारत में उच्च शिक्षा में गुणवत्ता एक बहुत बड़ी चुनौती है। टॉप-200 विश्व रैंकिंग में बहुत कम भारतीय शिक्षण संस्थानों को जगह मिल पाती है जबकि अमेरिका व चीन के बाद भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा उच्च शिक्षा तंत्र है। लेकिन इसके बावजूद उच्च शिक्षा की सुलभता का सपना साकार नहीं हो पा रहा है।
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