उत्तराखंड भी हिमाचल के साथ होता!
राजनीतिक अस्थिरता, वित्तीय कुप्रबंधन और फिजूलखर्ची के बावजूद उत्तराखंड का अपने से 46 साल सीनियर हिमालयी पड़ोसी हिमाचल से प्रतिव्यक्ति आय और सकल घरेलू उत्पाद जैसे मामलों में आगे निकल जाना उसकी विकास की भारी संभावनाओं का स्पष्ट संकेतक तो है.
उत्तराखंड भी हिमाचल के साथ होता! |
मगर जिस तरह वित्तीय कुप्रबंधन से नया राज्य कर्ज तले डूबा जा रहा है और आए दिन राजनीतिक प्रपंचों से लोगों का मोहभंग हो रहा है उसे देखते हुए आवाजें उठनें लगी हैं कि अगर यह राज्य हिमाचल की तरह शुरू में केंद्र शासित प्रदेश बन गया होता या फिर मैदानी उत्तर प्रदेश या संयुक्त प्रांत में मिलने के बजाय इसे शुरू में हिमाचल के साथ जोड़ दिया गया होता तो वह हिमालयी राज्यों के लिए विकास के एक रोल मॉडल के रूप में जरूर उभरता.
सन् 2000 के नवम्बर महीने में जन्मे छत्तीसगढ़ (1 नवम्बर), उत्तराखंड (9 नवम्बर) और झारखंड (15 नवम्बर) में से उत्तराखंड अन्य दो राज्यों में से न केवल प्रति व्यक्ति आय में बल्कि कई अन्य मामलों में आगे निकल गया है. प्रति व्यक्ति आय और सकल घरेलू उत्पाद के मामले में इस नये राज्य ने अपने से 46 साल सीनियर हिमाचल प्रदेश को भी पीछे छोड़ दिया है. इन 17 सालों में छत्तीसगढ़ में राजनीतिक स्थायित्व के बावजूद प्रति व्यति आय 91,772 रुपये और सकल घरेलू उत्पाद 2,90,140 करोड़ तक पहुंचा है. उत्तराखंड की ही तरह राजनीतिक झंझावात झेल रहे झारखंड की हालत तो इतनी खराब है कि बकौल राष्ट्रीय विकास परिषद उस राज्य को प्रति व्यक्ति आय के मामले में राष्ट्रीय औसत छूने में अभी और 17 साल लगेंगे. उसकी प्रति व्यति आय अभी 59,114 रुपये तक ही पहुंची है.
नये राज्य ही क्यों? 25 जनवरी 1971 को अस्तित्व में आए हिमाचल प्रदेश की प्रति व्यक्ति आय 1,30,067 और राज्य सकल घरेलू उत्पाद 1,24,570 करोड़ ही पहुंच पाया है. जबकि उत्तराखंड में प्रति व्यक्ति आय 1,51,219 रुपये और सकल घरेलू उत्पाद चालू भावों पर राज्य के जीएसडीपी का 1,84,091 करोड़ तक पहुंच गया है. इधर उत्तराखंड में सत्ता की छीना झपटी और संसाधनों की ऐसी बंदरबांट शुरू हुई कि प्रदेश कम आमदनी और ज्यादा खर्चों के कारण कर्ज के बोझ तले दबता चला गया. हिमाचल प्रदेश पर 46 सालों में केवल 38,568 करोड़ रुपये का कर्ज चढ़ा है, जबकि नेताओं और नौकरशाही की फिजूलखर्ची के कारण उत्तराखंड मात्र 17 सालों में लगभग 45 हजार करोड़ का कर्ज से दब चुका है, जिसका ब्याज ही प्रति वर्ष लगभग 4500 करोड़ तक चुकाना पड़ रहा है. अगर दोनों राज्यों के चालू वित्त वर्ष के बजट की तुलना करें तो हिमाचल प्रदेश सरकार ने इस बार वेतन पर 26.91 प्रतिशत राशि, पेंशन पर 13.83 प्रतिशत, कर्ज के ब्याज के लिए 9.78 प्रतिात राशि रखी है. जबकि उत्तराखंड सरकार ने वेतन भत्तों पर 31.01 प्रतिशत, पेंशन पर 10.71 प्रतिशत और ब्याज अदायगी के लिए 11.04 प्रतिशत धन का प्रावधान रखा है.
विकास के लिए हिमाचल के बजट में 39.35 प्रतिशत तो उत्तराखंड के बजट में मात्र 13.23 प्रतिशत राशि का प्रावधान रखा गया है. वह भी तब खर्च होगी जबकि केंद्र सरकार आर्थिक मदद मिलेगी. अन्यथा राज्य सरकार के पास विकास के लिए एक पैसा भी नहीं है. वर्तमान बजट में राज्य के करों और करेत्तर राजस्व के साथ केंद्रीय करों से मिले राज्यांश को मिला कर उत्तराखंड का कुल राजस्व लगभग 21 हजार करोड़ है और अब तक इतनी ही राशि उसे वेतन, पेंशन, ब्याज और अन्य खचरे पर व्यय करनी पड़ रही है. लेकिन सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने के बाद चार्च इतना बढ़ गया कि राज्य को हर माह वेतन आदि के लिए लगभग 300 करोड़ रुपये प्रति माह कर्ज लेना पड़ रहा है.
उत्तराखंड के राजनीतिक हालात को देखते हुए अब यह विचार उभरने लगा है कि जिस तरह 15 अप्रैल 1948 को 30 हिमालयी रियासतों को मिला कर अलग केंद्रशासित हिमाचल बनाया गया था उसी तरह इस उत्तराखंड को तत्कालीन संयुक्त प्रांत में रखने के बजाय केंद्रशासित क्षेत्र बना दिया गया होता या फिर हिमाचल की अन्य रियासतों के साथ ही इसे भी केंद्रीय शासन में शामिल कर दिया गया होता तो आज इतने राजनीतिक जोंक इस राज्य को नहीं चूसते. हिमाचल जब केंद्र शासन के अधीन गया तो पहली पंचवर्षीय योजना में उसके विकास की आधा रकम वहां सड़कों का जाल बिछाने पर खर्च की गई. इस बीच वह पार्ट सी का राज्य भी रहा.
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