मीडिया : यह कैसी चिंता है मित्र?

Last Updated 12 Nov 2017 05:21:20 AM IST

बरसात के कुछ दिनों को छोड़ दें तो दिल्ली का आसमान धूल और धुएं से कमोबेश भरा ही रहता है.


मीडिया : यह कैसी चिंता है मित्र?

लोग काम पर निकलते हैं, और जितना धूल धुआं फांकना होता है, फांकते हैं, लेकिन इस बार जाड़े के इन ऐन शुरुआती दिनों में जिस तरीके से मीडिया ने दिल्ली की हवा को खतरनाक बताया है, वैसा कभी नहीं बताया. पिछले साल भी इतना नहीं बताया.

कई चैनल बार-बार दो फेफड़े दिखाते हैं. एक ‘प्रदूषण रहित’ वाला है, दूसरा ‘प्रदूषण से पीड़ित हो चुका’ वाला है. एक कुछ लाल-लाल-सा दिखता है, दूसरा एकदम काला. एक तगड़ा-सा डॉक्टर बताता है कि ये एक बच्चे के फेफड़े हैं, ऐसा लगता है कि उसने तीन सौ सिगरेट पी हों. दिल्ली की हवा  बच्चों के लिए खतरनाक है. उसे बीमार कर सकती है...

चैनल दिन-रात लगे हैं. विशेषज्ञ लगे हैं-जिनके अपने  फेफड़े पता नहीं कैसे ठीक-ठाक हैं? चैनलों के एंकर, रिपोर्टर और डॉक्टर दिल्लीवासियों की चिंता में घुले जा रहे हैं. जो लोग अपने मरीजों से मोटी फीस लेकर उनकी दो मिनट भी नहीं सुनते, ऐसे लोग चैनलों में घंटों बैठे रहते हैं...क्यों? क्या हमारे लिए? जी नहीं जनाब. अपना ब्रांड बनाने के लिए. अपने को बेचने के लिए. चैनलों की खबरें और बहसें दिल्ली की हवा के बिगड़ने के कई कारण बताती हैं.

पहला: पंजाब-हरियाणा के किसानों के खरपतवार या पराली जलाने से धुआं बनता है, और वह उड़कर दिल्ली के आसमान में  ठहर जाता है. दूसरा : दिल्ली में बदरपुर पॉवर प्लांट कोयले से बिजली बनाने के कारण धुआं उगलता है. तीसरा : दिल्ली में पुल, सड़कें और मकान बनते ही रहते हैं, और इनसे पैदा होती धूल, कंक्रीट, सीमेंट के खतरनाक कण हवा में घुलते हैं; और चौथा: डीजलचालित ट्रक आदि जो सबसे खतरनाक धुआं बनाते हैं. एक विशेषज्ञा कह रही थीं कि डीजल सबसे ‘डर्टी फ्यूल’ (घटिया ईधन) है. दुनिया में यह कहीं उतना नहीं चलता, जितना अपने यहां. इसे बंद करो.

मीडिया दिल्ली को गैस चेंबर घोषित कर चुका है. प्रदूषण की एमरजेंसी लगा चुका है. स्कूल बंद हो चुके हैं, और कुछ चैनलों द्वारा बेकसूर सीएम केजरीवाल को इसके लिए ‘कसूरवार’ भी ठहराया जा चुका है. हम तो विशेषज्ञों पर कुर्बान हैं, जिनके लिए प्रदूषण समस्या कम और अपने एनजीओ की मार्केटिंग का अवसर अधिक है. कई विशेषज्ञ तो चैनलों में आकर मास्क तक बेचने लगे हैं कि इनको लगाके निकलो नहीं तो बीमार हो जाओगे. चैनल तुरंत मास्क लगाए लोगों को दिखाने लगते हैं. तरह-तरह के मास्क मार्केट में आ चुके हैं.

तीन तरह के ‘एअर प्यूरीफायर’ मार्केट में आ चुके हैं, जो शुद्ध हवा की गारंटी देते हैं. एक को करीना कपूर बेचती हैं, दूसरे ब्रांड प्रिंट में बेचे जा रहे हैं. प्रदूषण समस्या है. उसका भयावह वर्णन है लेकिन उसका समाधान है कि बाहर मास्क लगा कर निकलें और घर के अंदर एअरप्यूरीफायर लगाएं. जो नहीं खरीद सकते, दिल्ली छोड़ सकते हैं. यह संकेत भी है. हमारे स्वास्थ्य की चिंता में स्वस्थ होते जा रहे विचारक यह नहीं बताते कि किसान पराली का क्या करें? पिछले सीजन में मीडिया ने बतवाया था कि पश्चिम में मशीनें पराली को ठीक करती हैं,  उनको ले आओ और जलाने से बचो, लेकिन कितने किसान मशीन खरीद सकते हैं, यह कोई नहीं बताता.

और इस बार अपना मीडिया दिल्ली में दौड़ती बेशुमार  कारों के प्रदूषण के बारे में अपेक्षाकृत खामोश क्यों है? कारण यह है कि कार उद्योग मीडिया को ढेर सारे विज्ञापन दिलाता है. अगर कारों के खिलाफ बोले तो  विज्ञापन नहीं मिलेंगे? इसलिए वह कारों को बेचने में लगा रहता है, खिलाफ बोलने से बचता रहता है. जिस दिल्ली में हर साल लाखों नई कारें सड़कों पर आ जाती हैं, और जिनका धुआं दिल्ली को पूरे बरस पाटता रहता है, उन कारों को कैसे रोका जाए? यह कोई नहीं बताता. सिर्फ ‘ऑड-ईवन’ की मांग की जाती है. पिछले बरस के ‘ऑड-ईवन’ से कोई फर्क नहीं पड़ा था, लेकिन इससे क्या? हां, कारों को कुछ नहीं कहना है वरना विज्ञापन से हाथ धो बैठोगे.

कुल मिलाकर मीडिया द्वारा की जाती प्रदूषण-चिंता ‘मिडिल क्लासी’ चिंता है. वही मास्क खरीद सकती है, जिसे नये फैशन स्टेटमेंट की तरह पहन सकती है. वही एअरप्यूरीफायर भी खरीद सकती है. दिल्ली का गरीब कहां जाकर सांस ले? वह जाए भाड़ में. किसान जाएं भाड़ में. हमें तो आपकी चिंता करती है, आप हमारी करें. हम ठीक रहें. बाकी मरें. हमें क्या? माना कि दिल्ली में प्रदूषण है, और हर शहर में है, लेकिन इस बार मीडिया ने जिस तरह से उसे ‘बनाकर’ बेचा है, उससे  दो तरह की ‘जनता’ बनती है. एक जो प्रदूषण से बचने की ताकत रखती है. दूसरी जो सिर्फ मर सकती है. यह कैसी चिंता है मित्र?

सुधीश पचौरी


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