परत-दर-परत : इतने बैंकों की जरूरत क्या है?
भारत में बैंकों की संख्या 43 है. इनमें 21 सरकारी हैं, और 22 प्राइवेट कंपनियों के. कुछ विदेशी बैंकों की शाखाएं भी हैं, पर उनकी संख्या नगण्य है.
परत-दर-परत : इतने बैंकों की जरूरत क्या है? |
इनके अलावा, सहकारी बैंकों की एक पूरी श्रृंखला है. जाहिर है, इनका कार्य क्षेत्र सीमित होता है, कुछ राज्य स्तर पर काम करते हैं, कुछ जिला स्तर पर. यहां हम वाणिज्यिक बैंकों पर विचार करेंगे क्योंकि यह वह क्षेत्र है जहां कुछ किया जा सकता है. ज्यादातर सहकारी बैंक माफिया के हाथ में हैं. वही लोग बार-बार चुन कर आते हैं, और तरह-तरह के घोटाले करते हैं.
वाणिज्यिक बैंकों में एक दूसरी तरह का माफिया राज है. ये कुछ लोगों को भारी-भारी कर्ज देते हैं, जिनमें बहत सारा रु पया नाले में बह जाता है. यही एनपीए (नॉन-परफार्मिग असेट्स) हैं, यानी ऐसी संपत्तियां जिनसे बैंक को कुछ मिल नहीं रहा है. एक अनुमान के अनुसार, सरकारी बैंकों का एनपीए इस समय आठ लाख करोड़ रुपये से ज्यादा है. यह प्रति साल बढ़ता जा रहा है. इतना ज्यादा रु पया फंस जाने के कारण सरकारी बैंकों की आर्थिक स्थिति बिगड़ती जा रही है. इसे सुधारने के लिए केंद्र सरकार ने बैंकों की पूंजी बढ़ाने का फैसला किया है. सरकारी बजट से 18,000 करोड़ रुपये का आवंटन इन बैंकों के शेयर खरीदने के लिए किया जाएगा. सरकार ‘बैंक रिकैपिटलाइजेशन बांड्स’ (जिसका अर्थ क्या है, यह अभी तक स्पष्ट नहीं हो पाया है) के जरिए एक लाख 35 हजार करोड़ रुपये बैंकों को प्रदान करेगी. इसके बाद बैंकों से कहा जाएगा कि वे बाजार से 58,000 करोड़ रुपये उगाहें.
मैं नहीं समझता कि भारत के उद्योग-व्यापार में तेजी से वृद्धि इसलिए नहीं हो रही है कि पूंजी की कमी है. पूंजी आकाश से नहीं टपकती. वह औद्योगिक और वाणिज्यिक गतिविधियों की सफलता से पैदा होती है. यह सफलता कैसे हासिल की जा सकती है? उत्पादन से होने वाले मुनाफे के न्यायपूर्ण वितरण से. जब लोगों के पास पैसा पहुंचता है, तब बाजार में वस्तुओं और सेवाओं की मांग बढ़ती है. इससे उद्योग-धंधों में शक्ति का संचार होता है. पूंजी में वृद्धि होती है. पूंजी बढ़ने से उत्पादन बढ़ता है, और उत्पादन के फल का न्यायपूर्ण वितरण हो तो जनता में खुशहाली आती है. लेकिन हमारे नीति नियंता मांग का बाजार बढ़ाने के बजाय आपूर्ति के परिमाण में वृद्धि की रणनीति बनाने में व्यस्त रहते हैं.
यह उलटी गंगा बहाना है. एक बात मेरी समझ में नहीं आती कि भारत में इतने बैंकों की जरूरत क्या है? निजी क्षेत्र के बैंकों की संख्या को सीमित करने की जरूरत नहीं. जिसके पास भी अपेक्षित पूंजी हो, वह बैंक खोल सकता है. लेकिन इतने सरकारी बैंक चलाने की उपयोगिता क्या है? माना जाता है कि प्रतिद्वंद्विता होने से बैंकों की कार्यकुशलता में वृद्धि होती है. इसका लाभ ग्राहकों को मिलता है. लेकिन सरकारी बैंकों की इतनी बड़ी संख्या होने से उनकी कार्यकुशलता में वृद्धि हुई है, इसका कोई प्रमाण नहीं है. सभी सरकारी बैंकों के नियम-कायदे एक जैसे होते हैं. ब्याज की दरों में भी कोई फर्क नहीं होता. बल्कि होता यह है कि एक ही क्षेत्र में सौ-सौ मीटर की दूरी पर कई-कई सरकारी बैंकों की शाखाएं दिख जाती हैं. कुछ शाखाओं में ज्यादा काम होता है, तो कुछ में अफसर मक्खी मारते दिखाई देते हैं.
‘स्माल इज ब्यूटीफुल’ के महत्त्व से मैं अवगत हूं. इसका समर्थक भी हूं. बड़े-बड़े औद्योगिक और वाणिज्यिक निकायों को संभालना निश्चय ही मुश्किल होता है. लेकिन बैंकिंग के क्षेत्र में इसका फायदा तभी मिल सकता है, जब सारे बैंक अपने अलग क्षेत्रों में काम करते हों. भारत में ऐसा नहीं है. सभी सरकारी बैंकों का कार्य क्षेत्र पूरा देश है. जिस जिले में किसी एक बैंक से काम चल सकता है, वहां चार-चार, पांच-पांच बैंकों की शाखाएं होती हैं. किसी भी शाखा की व्यावहारिकता इसी में है कि वह कम से कम अपनी लागत तो निकाल ले. इसलिए बेहतर होगा कि 21 सरकारी बैंकों का आपस में विलय कर कुल चार या पांच बैंक बना दिए जाएं. सभी को मिला कर एक बैंक बना देना किसी भी दृष्टि से ठीक नहीं होगा. किसी भी क्षेत्र में मोनोपली नहीं होनी चाहिए. मोनोपली निरंकुश सत्ता को जन्म देती है, जो किसी भी अवस्था में काम्य नहीं है.
बैंकों का आपस में विलय कर चार-पांच बैंक बना देने से बैंकों की शाखाएं स्थापित करने और संचालन व्यय पर नियंत्रण रखने में सुविधा होगी. जमीनें महंगी हो गई हैं, और वेतन लगातार बढ़ रहे हैं. सबसे बड़ी बात यह है कि अब बैंकों में कागज पर लिखा-पढ़ी का काम बहुत कम हो गया है. कंप्यूटरों ने अधिकांश काम संभाल लिया है. इंटरनेट के प्रयोग से काम में तेजी आई है. इसलिए आज पहले से बहुत कम स्टाफ की जरूरत है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि बैंक कर्मचारियों की बड़े पैमाने पर छंटनी कर दी जाए. वास्तव में छंटनी कोई समाधान नहीं है. कोई आदमी ऐसा नहीं होता जिससे कोई काम न कराया जा सकता हो. देश का एक बड़ा इलाका ऐसा है, जहां किसी भी बैंक की कोई शाखा नहीं है. इन क्षेत्रों में नई शाखाएं खोली जा सकती हैं.
| Tweet |