मीडिया : विरोध की वैल्यू
अब तक हम एक ही ‘पदमावती’ को जानते थे. यह हिंदी के महाकवि मलिक मोहम्मद जायसी के महाकाव्य में रची गई ‘पदमावती’ है.
मीडिया : विरोध की वैल्यू |
प्रोमोटरों और मीडिया की मेहरबानी से अब कई-कई पदमावती दिखने लगी हैं : एक है भंसाली की ‘पद्मावती’. दूसरी ‘करनी सेना’ की ‘पदमावती’. तीसरी वघेला साहब की पदमावती. चौथी गुजरात के शिक्षा मंत्री की ‘पदमावती’. पांचवीं है उमा भारती की पदमावती. जितने मुंह उतनी पदमावती. पदमावती की जय हो. भंसाली जल्दी रिलीज चाहते हैं ताकि फिल्म कमाई कर सके. उधर, फिल्म को बिना देखे विरोध करने वाले मानते हैं कि फिल्म इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश करती है. पदमावती का अपमान करती है.
गुजरात में चुनाव होने जा रहे हैं. सभी नेता अतिरिक्त संवदेनशील होते दिखते हैं. सबसे पहले वघेला ने कहा कि पहले फिल्म हमें दिखाई जाए. हम ओके कर दें तो रिलीज की जाए. गुजरात सरकार के मंत्रियों ने चुनाव आयोग को लिखा है कि रिलीज को रोका जाए. फिर एक केंद्रीय मंत्री ने सुझाया कि इतिहासज्ञों और विद्वानों की एक कमेटी बनाई जाए जो पहले देखे कि फिल्म में इतिहास के साथ कहां और कैसी तोड़-मरोड़ की गई है. जब सब तय हो जाए, तब दिखाया जाए. टीवी चैनलों को कई दिनों का काम मिल गया है. वे आधे स्क्रीन में ‘पदमावती’ का ‘प्रोमो’ दिखाते हैं, और आधे में बहसें करवाते हैं कि पदमावती रिलीज हो कि न हो? एक पक्ष चाहता है कि सेंसर बोर्ड के ओके के बाद किसी को हक नहीं कि उसे फिर से सेंसर करे. ऐसा होने लगा तो रिलीज से पहले फिल्म हर आदमी को दिखानी पड़ेगी, तब तो फिल्में बन लीं.
विरोध करने वाले कहते हैं कि फिल्म में इतिहास से तोड़-मरोड़ की गई है, जो किसी शर्त पर बर्दाश्त नहीं हो सकती. कलांवत और लिबरल टाइप कहते हैं कि भई, यह तो कला है, आर्ट है, इतिहास नहीं है. इसलिए इसे इतिहास की तुला पर न तोलो. फिल्म को रोकना अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का हनन है. ऐसी ही एक गरमागरम बहस में एक एंकर कहने लगी कि पदमावती कोई ऐतिहासिक चरित्र नहीं है. वह तो लोकगाथा की नायिका है, और फिल्म एक कला है. अभिव्यक्ति की आजादी है. विरोध करना जायज नहीं, तो जवाब आया कि जो पदमावती को ऐतिहासिक मानने से मना करते हैं, वे तो राम को भी नहीं मानते. तो क्या राम नहीं हुए? पिछले महीनों के दौरान भंसाली की पदमावती तीन-चार बार चैनल-चरचाओं में आ चुकी है. अब फिर चरचा में बनी हुई है. हमारा मानना है कि यह सबसे लंबा प्रोमो है, जिसमें विरोध करने वालों के ‘विरोध’ के बारे में तरह-तरह की अफवाहें उड़ती नजर आती हैं. एक विरोधी ने तो एक चरचा में मान भी लिया कि फिल्म को हिट कराने के लिए लोग विवाद कराते हैं. वे विरोध कर रहे थे, या हिट करने के तरीके बता रहे थे? हमें तो लगा कि वे दोनों काम कर रहे हैं. हम जानते हैं कि जब तक पदमावती रिलीज नहीं होती तक तक हल्ला होता रहेगा. जिस दिन रिलीज होगी उस दिन उत्तेजना बिकेगी. मीडिया पूछता फिरेगा कि रिलीज होगी कि नहीं? एक समूह कहेगा : ‘आयम फॉर पदमावती’. दूसरा कहेगा :‘डाउन विद भंसाली की पदमावती’. फ्री का यह प्रोमो चलता रहेगा.
मीडिया दो तरीके से फिल्मों का ‘प्रोमो’ करता है : पहला : ‘पॉजिटिव’. दूसरा : ‘निगेटिव’. ‘पॉजीटिव प्रोमो’ में हीरो-हीरोइन-निर्देशक दर्शकों को समझाते रहते हैं कि हमारी फिल्म कमाल की है. सबने बहुत अच्छा काम किया है. आप देखने आ रहे हैं ना? लेकिन आजकल पॉजिटिव से ज्यादा ‘निगेटिव’ प्रोमोज फिल्मों को ज्यादा हिट कराते हैं. पदमावती को लेकर किया जा रहा विवाद प्रकारांतर से उसका ‘प्रोमो’ ही कर रहा है. यह ‘निगेटिव’ किस्म का प्रोमो है. यह किसी चीज का ‘विरोध’ के जरिए उसकी ‘मांग’ पैदा करता है. जितना विरोध उतना ही भाव.
पदमावती रिलीज हो जाएगी तो सारा विवाद ठंडा हो जाएगा. ‘उड़ता पंजाब’ हो या ‘सुल्तान’ हो या ‘दंगल’ या तेलुगू की ‘बाहुबली’ या ऐसी ही अन्य फिल्में, सबके साथ यही हुआ. पहले विवाद हुआ. फिर खूब कमाई करने वाली बनीं. कई जानकार बताते हैं कि बहुत से विवाद ‘पेड’ होते हैं. यह चक्र चलते रहना है : पदमावती के बाद फिर से कोई कुछ रिलीज करेगा तो फिर से कोई विरोध करेगा और ‘हिट’ होने की कोशिश की जाएगी. यह उल्टा जमाना है. जिसकी तारीफ की जाती है, उसे संदेह से देखा जाता है. जिसका विरोध होता है, उसकी वैल्यू बढ़ जाती है. विरोध में बड़ा आकषर्ण है. जिसका जितना विरोध, उसका उतना ही भाव. यही बिकता है. लोगों में जिज्ञासा होती है कि देखें कि क्या है?
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