परत-दर-परत : न्याय के एक और मंदिर का विचार
सब से पहले एक छोटा-सा किस्सा, जो कम लोग जानते हैं. समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया 1963 में फरूखाबाद से एक उपचुनाव जीत कर संसद में पहुंचे थे.
परत-दर-परत : न्याय के एक और मंदिर का विचार |
1967 में उनकी मृत्यु हुई. इस छोटी-सी अवधि में डॉक्टर साहब ने संसद को हिला कर रख दिया था. लोक सभा में जो भाषण दिए और जैसी बहसें शुरू कीं, वे बेजोड़ हैं. उतनी जीवंत लोक सभा न इसके पहले दिखाई पड़ी थी, और न उसके बाद. लोक सभा में आने के लगभग चार वर्षो तक वे सांसद रहे. 12 अक्टूबर, 1967 को उनकी मृत्यु हो गई. फरूखाबाद से उनके चुनाव को अदालत में चुनौती दी गई. अदालत का फैसला उनकी मृत्यु के बाद आया. फैसला था कि लोहिया का चुनाव वैध नहीं था. वह रद्द हो गया था.
अगर उस उपचुनाव में लोहिया हार जाते तो निश्चय ही संसद और देश का बहुत नुकसान होता. लोहिया हार जाते तो कोई और उम्मीदवार जीत जाता. वह कौन होता, इसकी सूचना मेरे पास नहीं है. लेकिन जो भी आदमी जीतता, उसका कद डॉ. लोहिया से बहुत छोटा होता. फिर भी जीत जीत है, और हार हार है. उस पराजित उम्मीदवार को न्याय मिलने में चार साल से ज्यादा हो गए. इस अवधि में डॉक्टर साहब फरूखाबाद के वैध प्रतिनिधि नहीं थे. इस घटना से समझ सकते हैं कि अदालत का फैसला देर से आने पर कितना अनर्थ हो सकता था. अगर इस उपचुनाव से संबंधित मुकदमे का नतीजा ज्यादा से ज्यादा तीन-चार महीने में आ जाता, तो इस अनर्थ को रोका जा सकता था.
इसी हफ्ते सर्वोच्च न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि राजनेताओं से संबंधित मुकदमों के लिए विशेष अदालतें होनी चाहिए ताकि उनका निपटारा जल्द से जल्द हो सके. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर कई आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं. मजे की बात यह कि उनके विरु द्ध चल रहे मुकदमों में पुलिस आगे क्या कार्रवाई करे, इसकी फाइल नये मुख्यमंत्री की मेज पर ही आई. योगी के हृदय में राजनैतिक नैतिकता के लिए तनिक भी सम्मान होता तो उन मुकदमों को चलने देते. सजा नहीं मिलती तो दावा कर सकते थे कि उन पर मुकदमे राजनैतिक कारणों से दर्ज कराए गए थे. अब जबकि ये मुकदमे स्थगित हैं, या पुलिस उनमें रु चि नहीं ले रही है, तो शक बना रह जाता है कि उनका अतीत आपराधिक रहा है, या नहीं. प्रस्तावित विशेष अदालतें काम कर रही होतीं तो अनिश्चय की वर्तमान स्थिति न होती.
किसी सांसद ने हत्या की है, तो जब तक उसे सजा नहीं मिल जाती, उसे निर्दोष ही माना जाएगा और तब तक वह चुनाव लड़ सकता है, मंत्री बन सकता है. मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री भी बन सकता है. जब तक अदालत उसे निर्दोष घोषित नहीं कर देती तब तक हम उसकी स्वतंत्रता से उसे वंचित कैसे कर सकते हैं? यह कानूनी तर्क है, लेकिन यह भी सही है कि सरकार अपने विरोधियों और आंदोलनकर्ताओं पर बेवजह मुकदमे ठोक देती है. फर्जी मुकदमों का नुकसान किसी निर्दोष को क्यों उठाना पड़े? इसलिए वाजिब है कि न्याय की प्रक्रिया को ही तेज किया जाए ताकि कोई अपराधी अपनी लोकतांत्रिक सुविधाओं का दुरुपयोग न कर सके. लेकिन विशेष अदालतें गठित करने का यह सिलसिला कब तक चलेगा? पहले से ही हमारे पास कई विशेष अदालतें हैं, जैसे फास्ट ट्रैक अदालतें, सीबीआई की अदालतें, आतंकवाद से संबंधित अपराधों पर सुनवाई करने वाली अदालतें. वस्तुत: 1979 में स्पेशल कोर्ट्स एक्ट पारित किया गया था, जिसमें सरकार को अधिकार है कि वह किसी खास उद्देश्य के लिए विशेष अदालत या अदालतों का गठन कर सकती है. लेकिन विशेष अदालतों के गठन से विभिन्न न्यायालयों में लंबित मुकदमों की संख्या बढ़ती जा रही है यानी विशेष अदालतों की स्थापना से साधारण अदालतों को कुछ खास राहत नहीं मिल सकी है. असल में, जहां भी स्पेशल या विशेष का दर्जा है, वह साधारण का अपमान है. आम नागरिक ने हत्या की है, तो उसका मुकदमा आठ-दस सालों तक झूलता रहे और किसी सांसद ने की है, तो उसके मुकदमे का निपटारा दो-तीन महीने में, यह विषमता और अन्याय नहीं है तो क्या है?
जाहिर है, सरकार विशेष अदालतों के लिए सरकार नये न्यायाधीशों की नियुक्ति तो करेगी नहीं, वह वर्तमान में सेवारत जजों से ही काम चलाएगी. इससे सामान्य अदालतों में कार्यरत न्यायाधीशों की संख्या और कम हो जाएगी जिससे उन पर काम का बोझ बढ़ जाएगा. मुकदमों के निपटान में विलंब का कारण क्या है? इसका सबसे बड़ा कारण है कि सरकार पर्याप्त संख्या में जजों की नियुक्ति ही नहीं करना चाहती. सर्वोच्च न्यायालय में छह पद रिक्त हैं. कुल 31 न्यायाधीशों के लिए स्वीकृति मिली हुई है, लेकिन न्यायाधीश सिर्फ 25 हैं. देश के उच्च न्यायालयों में कुल 397 जजों के पद रिक्त हैं. अत: न्यायिक प्रक्रिया में सुधार लाने के लिए सबसे पहला काम तो यही होना चाहिए कि जिस अदालत के लिए जितने पदों की स्वीकृति मिली हुई है, उन सभी पदों को तत्काल भरा जाना चाहिए. इसके बाद अन्य कदम उठाए जाएंगे, तभी कुछ फायदा हो सकेगा. समय पर न्याय देने के लिए विशेष अदालतों की कोई जरूरत नहीं है, सामान्य न्याय व्यवस्था को ही कुशलतर बनाया जाना चाहिए.
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