जंतर-मंतर : जाएं तो जाएं कहां?

Last Updated 04 Nov 2017 06:38:52 AM IST

प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में दिल्ली के एक फोटोग्राफर की तस्वीर लगी है, जिसमें प्रदर्शनकारी संसद परिसर के अंदर लोक सभा और राज्य सभा के जाने वाले मुख्य दरवाजे के बाहर खड़े होकर नारे लगा रहे हैं.


जंतर-मंतर : जाएं तो जाएं कहां?

यह तस्वीर ब्रिटिश सत्ता के खत्म होने के थोड़े वर्ष बाद की है. जो लोग संसद भवन में पिछले पचास वर्षो से जा रहे हैं उन्हें इसका अनुभव है कि आम लोगों को अपनी नाराजगी व भावनाएं प्रगट करने से भारत की संसद से कैसे दूर किया जाता रहा है? दूसरा चरण यह आया कि संसद मार्ग पर बने संसद के मुख्य दरवाजे तक जाने की मनाही कर दी गई. तीसरा दौर वह भी आया जब वोट क्लब पर विरोध जताने की मनाही कर दी गई ताकि संसद भवन की छाया भी नहीं दिखे.

सत्ता लोकतंत्र की सीमाओं को तय करती है. दुनिया में सबसे बड़े लोकतंत्र होने का शोर इन वर्षो में जितना ज्यादा मचा है उतनी ही दूरी लोगों की संसद भवन से बढ़ती चली गई है. दूसरे शब्दों में कहें तो लोकतंत्र महज सत्ता का विज्ञापन है. संसद भवन एक प्रतीक है, जिसका इस्तेमाल सत्ता अपने लोकतंत्र के लिए करती है. लेकिन उसी प्रतीक का इस्तेमाल सामान्य नागरिक या लोग करने की कोशिश करते हैं तो वह लोकतंत्र के प्रतीक पर हमले की आशंका में तब्दील कर दी जाती है.

प्रतीक पर हमले का डर आम लोगों के बीच प्रचार की सामग्री होती है. एक विवरण में बताया जा सकता है कि कैसे संसद भवन के आसपास के इलाकों में राजनीतिक व सामाजिक कार्यकर्ताओं के बैठकर बातचीत करने की जगहें भी एक-एक कर समाप्त कर दी गई. मीडिया को समाचार देने वाली एजेंसी यूएनआई के परिसर एवं संविधान सभा के बैठक स्थल वीपी हाउस के लॉन में घास पर हजारों हजार बैठकें उन लोगों ने की है जो कि मीटिंग के लिए पैसे खर्च करने की स्थिति में नहीं होते हैं. लेकिन भूमंडलीकरण के दौर में सौंदर्यीकरण और विकास के नाम पर उन जगहों की डिजाइन ऐसी तैयार कराई गई कि वहां बैठना ही संभव नहीं रहा.

दूसरी तरफ उस सौंदर्यीकरण और विकास की सुरक्षा के नाम पर वैसे गरीब वर्दीधारी बैठा दिए गए, जो वर्दीधारी अपनी नौकरी की सुरक्षा में ज्यादा क्रूरता से आम नागरिकों के खिलाफ पेश हो सके. कॉफी हाउस की छत्त पर भी लॉन को खत्म कर दिया गया. नया है कि जंतर मंतर पर लोगों को अपनी भावनाएं प्रगट करने से रोकने का फैसला राष्ट्रीय हरित न्यायालय (एनजीटी) की तरफ से आया है. संसदीय लोकतंत्र की अपनी सीमाएं है. वह भावनाएं व विचार प्रगट करने के लिए मंच दर मंच मुहैया कराना उसकी खूबी है. लेकिन लोकतंत्र वर्ग निरपेक्ष नहीं होता है. संविधान में जो लोकतंत्र परिभाषित है, उसका इस्तेमाल समाज का वही वर्ग कर सकता है जो कि सत्ता के सापेक्ष हो.

उनके बीच संगठित होने के तमाम रास्तों को बंद करने की प्रक्रिया शुरू हो गई. 144 धारा स्थायी रूप से जड़ दी गई. विरोध प्रदर्शनों को अनसूनी करने, उनके खिलाफ पुलिस का दमन, उनके खिलाफ पाबंदियों के आदेश आदि की घटनाओं का एक विवरण तैयार करें तो वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले की ब्रिटिश जमाने से भी ज्यादा भयावह तस्वीर पेश करती दिखाई देगी. जंतर मंतर पर गांधीवादी प्रदर्शन, धरना, भूख हड़ताल पर रोक एनजीटी ने लगाई है. यह न्यायालय पर्यावरण के मामलों पर सुनवाई करती है.

पर्यावरण में शोरगुल भी आता है, जिसे ध्वनि प्रदूषण कहा जाता है. इस न्यायालय ने जंतर मंतर के आसपास रहने वाले कुछ लोगों की याचिका पर फैसला दिया कि पुलिस और प्रशासन जंतर मंतर पर प्रदर्शन नहीं होने दें. जंतर मंतर पर आने से लोगों को रोकने की यह कोशिश पिछले कई सालों और कई तरह  से हो रही है और यह योजना बनाई गई थी कि प्रदर्शनों के लिए दिल्ली-हरियाणा की सीमा पर जगह बना दी जाए. इसीलिए न्यायालय का यह आदेश फौरी तौर पर लागू कर दिया गया.

लोकतंत्र में नीतिगत फैसला पहले होता है और फिर उसे लागू करने के रास्ते निकाले जाते हैं. संसद में शोरगुल होता है तो उसका मूल्यांकन आर्थिक नुकसान से किया जाता है. कोई आर्थिक मामलों की अदालतों में जाए और ये याचिका डाल दे कि आर्थिक नुकसान हो रहा है, संसद की कार्यवाही खत्म कर देनी चाहिए? लोकतत्र की प्रक्रिया कोई टापू नहीं है. यह मान्यता है कि समाज में पनप रहे असंतोष और भिन्न विचारों को समाज सुने.

अदालतों के ही कई फैसले हैं, जिनमें इस बात पर जोर दिया गया है कि लोकतंत्र में विरोध की आवाज को इतनी ही दूर रखा जा सकता है ताकि वह आवाज वहां तक पहुंच सके, जिनके लिए वह लगाई जा रही है. दिल्ली को केंद्रीय सत्ता का प्रतीक माना जाता है और यहां से उठने वाली आवाज को पूरे देश के लिए आवाज का प्रतीक माना जाता है. लोकतंत्र को सीमित करने की दो प्रक्रियाएं मुख्यतौर पर दिखती है. एक तो लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को दूसरे क्षेत्रों की शब्दावलियों से आंकने की योजना लागू की गई. मसलन लोकतंत्र की प्रक्रिया को आर्थिक नुकसान, पर्यावरण को खतरा, असुरक्षा, विकास में बाधा आदि की शब्दावलियों से दिखाया जाने लगा.

दूसरा लोकतंत्र को इस तरह से दिखाने वालों ने संविधान की अपने अनकूल व्याख्याएं प्रचारित व प्रसारित की हमलावर योजनाएं बनाई. यह व्याख्याओं का ही खेल है. कोई न्यायालय एक तरफ यमुना के तट पर पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले श्री श्री रविशंकर द्वारा किए जाने वाले कार्यक्रमों को सांस्कृतिक अधिकार मान ले और उसे संविधान की धारा 21 के अनुकूल करार दे दे और दूसरी तरफ ध्वनि प्रदूषण कानून का उल्लंधन मानकर संविधान की धारा 19 के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का लोप कर दे.

जंतर मंतर के आसपास रिहाइश को ये अधिकार है कि वह अपने अनुकूल वातावरण में रह सकें. लेकिन इसका रास्ता तो यह नहीं हो सकता है कि लोकतंत्र की पूरी प्रक्रिया को ठप कर दिया जाए. लोकतंत्र को संसद बनाम जंतर मंतर करने की एक राजनीतिक प्रक्रिया रही है. उसकी समाप्ति की घोषणा की जा रही है. विरोध के लिए जगहें किराये पर लेनी होगी और किराये पर जगह तभी मिलेगी जब जगह का मालिक चाहेगा. गरीब और विपन्न के लोकतंत्र के साथ ‘जंतर मंतर’ का यह नया फैसला है.

अनिल चमड़िया


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