उत्पीड़न-औरतों का औरतों द्वारा, मर्दों के लिए
हां, मैं यह खतरा उठा रहा हूं, जान-बूझकर और सोच-समझकर उठा रहा हूं.
विभांशु दिव्याल (फाइल फोटो) |
खतरा यानी चालू और चर्चित मुहावरों के विरुद्ध वह कहने का जिसे महिला दिवस के ढोल-नगाड़ों के बीच तो कम से कम कोई नहीं सुनना चाहेगा. हो सकता है कि अखबारी पन्नों और मीडियाई बहसों में पुरुष विरोधी आग उगलने वाले दुर्गा, चंडी और काली के महिलावादी मिनी कलि अवतार अपने खड्ग और खापर लेकर मेरे पीछे पड़ जाएं, मुझे महिला विरोधी करार दें, मुझे प्रतिगामी ठहरा दें, किसी कुंठा का शिकार बता दें या फिर मुझे वैचारिक तौर पर दिवालिया घोषित कर दें.
मगर मुझे लगता है कि पुरुष विरोधी जड़ मानसिकता का यह फैशनेबुल चालू हाहाकार जिसे सबसे ज्यादा चालू पुरुषों ने ही चलाया और चढ़ाया है, और जिसने चारों तरफ दृष्टि बाधक धुंध फैलाई है, अब थमना चाहिए. इसलिए थमना चाहिए कि इसने मौजूदा सामाजिक यथार्थ की जटिलता को समझने के औजार कुंद कर दिए हैं या फिर इसका इतना सरलीकरण कर दिया है कि हर बोल सकने वाली जुबान सिर्फ यही बोलती है कि महिलाओं के सारे संकटों का एकमात्र कारण पुरुष है.
मैं अपने अनुभव क्षेत्र के अनगिनत उदाहरणों में से एक उठा रहा हूं. बात वर्षों पहले की और दिल्ली के एक गहमागहमी भरे कार्यालय की है. यहां कार्यरत एक पुरुष अधिकारी की अपनी एक महिला सहकर्मी के साथ ठीकठाक छनती थी. इस ठीकठाक छनने को इसके अन्यान्य निहितार्थों के साथ प्रचारित-प्रसारित करने में इस महिला सहकर्मी की सहकर्मणियां सबसे आगे रहती थीं. फिर यह हुआ कि इस कार्यालय में एक नवागंतुका का प्रवेश हुआ. देखा जाने लगा कि वह पुरुष अधिकारी इस नवागंतुका पर कृपा-बौछार कुछ ज्यादा ही कर रहा है. यह सबसे हंसने-बोलने वाली एक सरलमना वाचाल कन्या थी, जो अभी कार्यालयीय छल-छद्मों में दीक्षित नहीं हुई थी. मगर यह कन्या उस महिला सहकर्मी को खटक गई. उसे लगा कि यह उसके अधिकारी मित्र को छीन रही है. फिर क्या था, उसने इस कन्या को सबके सामने डांटने-फटकारने से लेकर उसके चरित्र हनन का ऐसा अभियान चलाया कि यह कन्या पहले रोई-धोई, इधर-उधर बचाव में हाथ-पैर मारे, अंतत: घबराकर भाग खड़ी हुई.
इस तरह की यह अकेली घटना नहीं है जो मेरे अनुभव के दायरे में आई हो. मैं कई बार थोड़ी-बहुत उलटफेर के साथ घटनेवाली ऐसी अनेक घटनाओं का साक्षी बना हूं और आज भी बन रहा हूं जहां महिलाएं किसी पुरुष के कारण, या कार्यालयीय प्रतिद्वंद्विता के कारण, ईर्ष्या-द्वेष के कारण, या फिर किसी अन्य ग्रंथि के कारण महिलाओं के विरुद्ध ही मोर्चा खोले रहती हैं और उनके इन युद्ध मोर्चों में ऐसी-ऐसी रणनीतियां शामिल रहती हैं कि पुरुष की कुटिल दृष्टि वहां तक पहुंचने में पनाह मांग जाए. इस समाज का घर-परिवार से लेकर व्यवसाय, राजनीति, धर्म-संस्कृति, सिनेमा, टीवी, अखबार, अस्पताल जैसा कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जहां महिलाएं एक-दूसरे को उखाड़ने-पछाड़ने, गिराने-मिटाने के लिए पूरी संलग्नता से नहीं जुटी हों.
उजागर तौर पर वे भले एक दूसरे के विरुद्ध ताल ठोंकती नजर न आएं, मगर उनका यह शीतयुद्ध चलता ही रहता है. जाहिर है इस शीतयुद्ध में पुरुष एक कारक भी होता है और भागीदार भी. किस मां को यह बात पचती है कि नई बहू आकर उसके बेटे पर कब्जा कर ले. याद करिए दिल्ली बलात्कार कांड को, जिसमें पीड़ित लड़की को ही चारित्रिक तौर पर दोषारोपित करने में महिलाएं आसाराम जैसे बापुओं से कहीं ज्यादा आगे दिखी थीं. मोनिका लेविंस्की से लेकर मधुमिता शुक्ला जैसे कांडों में संलिप्त पतियों की पत्नियां किसके विरुद्ध खड़ी दिखी थीं?
यहां मेरा मंतव्य महिलाओं को दोषारोपित करने का नहीं बल्कि यह बताना है कि यह व्यवहार महिलाओं द्वारा जबरदस्ती अपनाया हुआ व्यवहार नहीं बल्कि प्राकृतिक और सामाजिक व्यवस्थाओं से प्रसूत व्यवहार है, ठीक उस तरह से जैसे पुरुष का व्यवहार इनसे प्रसूत होता है. पुरुष हो या स्त्री, वे प्राकृतिक तौर पर अन्य जीव-जंतुओं की तरह जैविक प्राणी ही हैं और उनका नैसर्गिक व्यवहार वही होता है जो किसी अन्य जीव का हो सकता है. इस व्यवहार का नियमन और परिष्कार मनुष्य निर्मित व्यवस्थाएं करती हैं. अगर स्त्री-पुरुष का व्यवहार लगातार पशुवत ही बना रहता है तो इसका अर्थ यह है कि मनुष्य निर्मित व्यवस्थाओं में ही कोई जबरदस्त कमी हैं जिनके कारण स्त्री और पुरुष अपनी मूल पशु-प्रवृत्ति से ऊपर उठकर मनुष्यवत यानी एक-दूसरे के प्रति उदार और संवेदनशील नहीं हो पा रहे.
दरअसल, स्त्री और पुरुष को संयुक्त तौर पर एक सामाजिक इकाई न मानकर उन्हें अलग-अलग इकाइयों में विभाजित करना और एक-दूसरे के कष्टों के लिए एक-दूसरे को आरोपित करना एक गहरा सामाजिक विचलन है. ऐसा विचलन है जो इस मय दुर्गा, चंडियों की अनावश्यक भीड़ पैदा करके वैचारिक स्तर पर गहरी दृष्टि-बाधा पैदा कर रहा है, तो दूसरी ओर मूल समस्या से ध्यान हटा रहा है. अगर आज औरतों के उत्पीड़न की कहानियां लगातार सामने आ रही हैं या उन्हें ही ज्यादा विशेषीकृत किया जा रहा है तो उसे मर्द का कारनामा नहीं मान लिया जाना चाहिए.
एक क्रूर, अभद्र, अविकसित, जड़ और कुंद गति समाज में हर वह व्यक्ति उत्पीड़न का शिकार होता है जो कमजोर हो- चाहे शारीरिक तौर पर या भौतिक तौर पर. एक अल्पविकसित या अर्ध-विकसित समाज में हर ताकतवर व्यक्ति अपने से कमजोर व्यक्ति का उत्पीड़न करता है, फिर वह चाहे औरत हो या मर्द. बस प्राकृतिक देह संरचना के कारण उत्पीड़न की प्रकृति बदल जाती है. अगर और के उत्पीड़न की जड़ें खोदनी हैं तो इसकी जड़ें पुरुषों में नहीं बल्कि आर्थिक-सामाजिक ढांचे में तलाशी जानी चाहिए, और इसकी ऐतिहासिकता में भी. स्वस्थ समाज वह है जो किसी को इतना कमजोर न रहने दे कि कोई उसका उत्पीड़न कर सके और किसी को इतना ताकतवर न होने दे कि वह उत्पीड़न कर सके.
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