उम्मीद का वोट
भारत के मुकुट कश्मीर के श्रीनगर संसदीय क्षेत्र में शांतिपूर्ण मतदान लोकतंत्र में आस्था की कहानी बयां कर रहा है। अपने बेहतर भविष्य की उम्मीदों को लेकर घरों से निकले मतदाताओं ने पिछले 28 वर्षो के मतदान का रिकॉर्ड तोड़ दिया।
उम्मीद का वोट |
इस बार तीन फीसद मतदान हुआ जबकि 2019 में 14.43 और 2014 में 25.86 फीसद मतदान हुआ था। 1996 में 40.94 फीसद मतदान हुआ था और यह वह समय था जब आतंकवादियों और अलगाववादियों ने चुनाव के बहिष्कार की अपील की थी, लेकिन सेना की मदद से लोग मतदान केंद्रों पर आने में समर्थ हुए थे।
लेकिन इस बार श्रीनगर के लोग बेखौफ होकर घरों से बाहर आए और मताधिकार का प्रयोग किया। जम्मू-कश्मीर में संविधान का अनुच्छेद 370 निरस्त किए जाने के बाद यह पहला आम चुनाव है। दशकों से यहां लोग चुनाव बहिष्कार, आतंक और हिंसा के डर से घरों से बाहर नहीं निकला करते थे।
लेकिन अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद चुनाव बहिष्कार की राजनीति इतिहास बन गई है। श्रीनगर संसदीय क्षेत्र का दायरा पांच जिलों और 18 विधानसभा क्षेत्रों तक फैला है। हैरानी की बात यह है कि पुलवामा और शोपियां जैसे आतंकवादियों के गढ़ माने जाने वाले क्षेत्रों में पिछले चुनावों के मुकाबले इस बार मतदान अधिक हुआ।
श्रीनगर संसदीय क्षेत्र के गंदरबल, बड़गाम, पुलवामा, शोपियां और त्राल जैसे इलाकों में मतदान का प्रतिशत बढ़ा है जो एक नया ट्रेंड दर्शाता है। इसका साफ संकेत है कि कश्मीर घाटी के लोग अनुच्छेद 370 निरस्त करने के केंद्र सरकार के फैसले के समर्थन में हैं।
यह इस बात से भी स्पष्ट होता है कि प्रतिकूल मौसम होने के बावजूद पोलिंग बूथ पर मतदाताओं की कतार लगी हुई थी। इससे यह भी साफ होता है कि यहां के लोगों ने विरोध के पक्ष में नहीं, बल्कि उम्मीद के पक्ष में वोट किया है। श्रीनगर में शांतिपूर्ण मतदान का होना और लोगों का उत्साहपूर्ण चुनाव प्रक्रिया में शामिल होने का यह भी अर्थ नहीं है कि यहां के क्षेत्रीय दलों और केंद्र सरकार के बीच विश्वास बहाली की प्रक्रिया पूरी तरह संपन्न हो गई है।
नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी अनुच्छेद 370 और जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा बहाल करने की मांग कर रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि लोक सभा के बाद विधानसभा के चुनाव में भी लोग इसी तरह उत्साह से वोट करते नजर आएंगे।
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