प्रदर्शनकारी किसानों से बात करे सरकार
सरकार और प्रदर्शनकारी किसानों के बीच बातचीत विफल हो गई है। इन किसानों ने सरकार का पांच फसलों पर ही पांच साल तक न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) दिए जाने का प्रस्ताव ठुकरा दिया है।
बात करे सरकार |
वे यह मानने के लिए तैयार नहीं हैं कि सरकार 23 फसलों पर एमएसपी का भार 1.50 लाख करोड़ की लागत आने के चलते उसे नहीं उठा सकती। एमएसपी की कानूनी गारंटी नहीं दे सकती। किसानों का मानना है कि सरकार कारपोरेट घराने के दबाव में इससे मुकर रही है। कांग्रेस भी ऐसा मानती है।
उसका सवाल होता है कि जब कारपोरेट का 14 लाख करोड़ रुपए कर्ज की माफी हो सकती है और 1.84 करोड़ टैक्स की छूट दी गई है तो एमएसपी पर आने वाला कुल भार जीडीपी के हिसाब लगभग नगण्य है। इसके नेता राहुल गांधी क्रिसिल की एक रिपोर्ट के आधार पर बताते हैं कि यह भार महज 21हजार करोड़ रुपए ही बैठता है। यह रकम विश्व व्यापार संगठन से बाहर आने की कीमत के लिहाज से भी कम है। ऐसे में जाहिर है कि अभी की स्थिति में और ‘दिल्ली चलो’ पार्ट दो की तैयारी में एमएसपी ही धुरी है। वार्ता टूटने की सबसे बड़ी वजह भी यही है।
सरकार की तरफ से भी नहीं कहा गया है कि इसके बाद वह क्या करेगी? लेकिन किसान भी ‘दिल्ली कूच’ को लेकर बंटे हुए लगते हैं। उनका एक हिस्सा इसके लिए समय लेना चाहता है तो दूसरा बुधवार से ही इस पर अमल करने के लिए दबाव बना रहा है। इससे लगता है कि सरकार फिर नए प्रस्ताव के साथ किसानों से बातचीत के लिए आएगी। पर यह मुद्दा एमएसपी की उपादेयता और सर्वस्वीकार्यता पर राष्ट्रीय स्तर पर विचार करने का भी है। इस पर केवल पंजाब, हरियाणा या पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसानों को ध्यान में रखते हुए विचार नहीं किया जाना चाहिए।
एमएसपी भुखमरी या अभावों के जिन हालातों में बचाव के लिए लाई गई थी, वह दौर अब कमोबेश नहीं रहा है। बाजार में खुली प्रतिस्पर्धा के बल पर उस सकारात्मकता का निर्माण भी हुआ है, जिसमें जोखिम लेने का दमखम है। खेती में एक विविधकरण आया है। कुछ प्रगतिशील किसान इसे लागू कर रहे हैं और उसका फायदा भी उठा रहे हैं। इसके बावजूद यही बात राष्ट्रीय स्तर पर नहीं कही जा सकती। यहां एमएसपी को फिलहाल न केवल बनाए रखने बल्कि उसे दोषरहित तरीके से लागू करने की परिस्थिति है और निश्चित रूप से इसके लिए व्यवस्था ही जवाबदेह है।
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