न्यूट्रिनो कणों की खोज और अध्ययन के लिए बनायी जा रही है भूमिगत वेधशाला

Last Updated 22 Feb 2015 03:02:47 PM IST

न्यूट्रिनो कणों की खोज और अध्ययन के लिए तमिलनाडु में केरल सीमा के पास भूमिगत वेधशाला बनायी जा रही है.




कई गुफाओं वाली होगी न्यूट्रिनो वेधशाला (फाइल फोटो)
यह वेधशाला चट्टान से 1200 मीटर गहराई पर होगी तथा इसमें कई गुफाएं होंगी. तमिलनाडु के थेनी जिले की बोडी पहाडियां में कई संस्थाओं के सहयोग से इस वेधशाला की स्थापना की जा रही है.
 
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इस वर्ष जनवरी में करीब 1500 करोड की इस परियोजना को हरी झंडी दी थी. इसके तहत लगभग 1200 मीटर ऊंचे चट्टानी पहाडों के नीचे विस्तरीय प्रयोगशाला बनायी जायेगी जिसमें 132 मीटर गुणा 26 मीटर गुणा 20 मीटर आकार की एक बडी गुफा और कई अन्य छोटी-छोटी गुफाएं होंगी, जहां 1900 मीटर लंबी और साढे सात मीटर चौडी सुरंग से पहुंचा जा सकेगा.
 
इस परियोजना में परमाणु ऊर्जा विभाग और विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी विभाग मिलकर सहयोग दे रहे हैं जबकि परमाणु ऊर्जा विभाग केंद्रीय एजेंसी के तौर पर काम करेगा. परियोजना का उद्देश्य न्यूट्रिनो पर मूलभूत अनुसंधान करना है. देश के 21 अनुसंधान संस्थान-विविद्यालय और आईआईटी इस परियोजना में शामिल हैं.
       
माना जा रहा है कि न्यूट्रिनो कण से अंतरिक्ष से संबंधित कई जानकारियां प्राप्त की जा सकती हैं. इसी कारण से वैज्ञानिकों की इनके अध्ययन में विशेष रूचि है. फोटोन के बाद न्यूट्रिनो प्रचुर मात्रा में ब्रह्मांड में विद्यमान है. प्रत्येक एक घन सेंटीमीटर में लगभग 300 न्यूट्रिनो होते हैं. ये कण सूर्य जैसे तारों में रेडियोधर्मी क्षय और वायुमंडल से कास्मिक विकिरणों की आपसी क्रिया से उत्पन्न होते हैं. साथ ही इन्हें नाभिकीय संयंत्रों में भी निर्मित किया जा सकता है.
 
वैज्ञानिकों का मानना है कि 15 अरब वर्ष पहले ब्रह्मांड की उत्पत्ति के बाद जो न्यूट्रिनो पैदा हुए थे वे आज भी सक्रिय हैं. सूर्य के केंद्र में परमाणु संलयन की वजह से जो न्यूट्रिनो उत्पन्न हुए वे पृथ्वी के ऊपर घूमते रहते हैं. मानव शरीर से भी न्यूट्रिनो उत्सर्जित होते हैं. मानव शरीर में मौजूद रेडियोधर्मी पदार्थ पोटेशियम 40 लगातार न्यूट्रिनो का उत्सर्जन करता है. प्रति सेकंड लगभग 100 खरब न्यूट्रिनो सूर्य और अन्य आकाशीय पिंडों से उत्सर्जित होकर हमारे शरीर से टकराते हैं लेकिन इससे हमें कोई नुकसान नहीं पहुंचता.
        
1930 में जाने-माने भौतिकिविद पाउली को प्रयोगों से पता चला कि जब कोई अस्थिर आणविक नाभिक एक इलेक्ट्रान को छोडता है तो उसकी नयी ऊर्जा और गति उम्मीद के मुताबिक नहीं होती थी. इस समीकरण को संतुलित करने  और ऊर्जा के सरंक्षण के सिद्धांत को कायम रखने के लिए पाउली ने एक सैद्धांतिक कण की अवधारणा प्रस्तुत की. 1933 में भौतिक विज्ञानी फर्मी ने इस कण को न्यूट्रिनो नाम दिया. 
 
इस कण का आवेश न तो धनात्मक था और न ही रिणात्मक. यानी इसके अस्तित्व को साबित करना मुश्किल था. पूरी दुनिया में बहुत से वैज्ञानिक पिछली पूरी सदी के दौरान न्यूट्रिनो को खोजते रहे. भारत में इस पर अनेक शोध हुए हैं. कास्मिक किरणों से बनने वाले न्यूट्रिनो का सबसे पहले पता भारत में ही चला था. सन 1965 में कोलार सोने की खदानों में करीबन 2.3 किलोमीटर की गहराई पर वायुमंडलीय न्यूट्रिनो खोजा गया था.
        
1990 के दशक में कोलार सोने की खदानों के बंद हो जाने से भारत के न्यूट्रिनो कार्यक्रम का रास्ता रूक गया. अब एक बार फिर इस क्षेत्र में काम करने की पहल शुरू हुई है. इस परियोजना के लिए कम से कम एक किलोमीटर की गहराई और सुरक्षा के लिए बढिया गुणवत्ता वाली चट्टानों की आवश्यकता थी. साथ ही पर्यावरण पर इसके कम से कम प्रभाव को भी ध्यान में रखा गया. इस परियोजना की संकल्पना पूरी तरह से भारतीय वैज्ञानिकों ने प्रस्तुत की. 
 
2002 में सात भारतीय संस्थानों ने इस संबंध में एक ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए थे. इस प्रयोग में केवल भौतिकविद ही हिस्सा नहीं लेंगे बल्कि इसमें इंजीनियर और साफ्टवेयर विशेषज्ञ भी शामिल होंगे. इंजीनियर मैग्नेट बनाएंगे जबकि इलेक्ट्रान विशेषज्ञ चिपों और डाटा संकलन व्यवस्था को अमली जामा पहनाएंगे. साफ्टवेयर विशेषज्ञ प्रयोग की मानीटरिंग के लिए साफ्टवेयर डिजाइन करेंगे. हालांकि इस परियोजना की राह आसान नहीं है. 
 
एमडीएमके के नेता वाइको ने इसके खिलाफ एक याचिका दायर की है. उनका कहना है कि रेडियोधर्मिता से आसपास के पर्यावरण को नुकसान होगा. साथ ही ऐसी अटकलों का बाजार भी गर्म है कि यहां नाभिकीय अपशिष्ट एकत्र किया जाएगा. लेकिन सरकार ने साफ किया है कि यह वेधशाला पूरी तरह भूमिगत होगी जिससे विकिरण का खतरा नहीं होगा. सुरंगों के निर्माण से पर्यावरण, जल सेतों और बांधों पर कोई प्रभाव नहीं पडेगा.
 
इस परियोजना को केंद्र और राज्य सरकार की विभिन्न एजेंसियों से हरी झंडी मिल चुकी है. सरकार का कहना है कि भारतीय भूगर्भ विभाग ने भी इस परियोजना के बारे में विस्तृत भूगर्भीय अध्ययन किया है. वेधशाला में प्रयोग के दौरान कोई रेडियोधर्मी या विषैला पदार्थ नहीं निकलेगा. यह कोई हथियार बनाने की प्रयोगशाला नहीं है और ना ही इसका सामरिक या रक्षा मामलों से कोई लेना देना है. 



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