दल बदलने से बदलेगी देश की राजनीति?
भारतीय राजनीति में एक कहावत बहुत मशहूर है। यहां न कोई दोस्ती स्थायी होती है, न दुश्मनी। एक मायने में इस कहावत का मिजाज उस शराब जैसा भी माना जा सकता है, जिसकी गुणवत्ता और वक्त में एक समानुपातिक संबंध होता है, जितनी पुरानी शराब, उतना ज्यादा नशा।
दल बदलने से बदलेगी देश की राजनीति? |
सियासत में दोस्ती-दुश्मनी का यह सूत्र न सिर्फ वक्त बीतने के साथ नशे की तरह परवान चढ़ा है, बल्कि आज केंद्र से लेकर राज्यों तक जिस तरह के हालात हैं, उसमें तो यह बड़ी तेजी से लत बनता जा रहा है।
दिन बदलने के साथ ही दिल बदलना अब आम होता जा रहा है। वैसे दिन की शुरुआत सूर्योदय के साथ होती है जो पूरब से निकलता है। तो अगर आज की बात पूरब से ही शुरू करें तो फिर एक कहावत बदले संदभरे में सामयिक दिखती है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले ने कहा था कि जो बंगाल आज सोचता है, वो देश कल सोचता है। हालांकि वो संदर्भ रचनात्मक था, यहां उसका उपयोग प्रयोगात्मक है। लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि बंगाल से चली दलबदल की ‘पुरवाई’ आज पूरे देश की सियासत में दर्द का सबब बन रही है।
इस प्रक्रिया में, कुछ अपवादों को छोड़कर, हर सियासी दल में व्यक्तिगत गांठ दलगत रिश्तों में ऐसे मन-मुटाव में बदलती जा रही है कि सालों-साल पुरानी निष्ठा का रातों-रात कायाकल्प हो जाता है। दिलचस्प बात यह है कि यहां व्यक्तिगत गांठ को व्यक्तिगत हित भी पढ़ लिया जाए, तो भी वाक्य का भाव नहीं बदलेगा। इसे बंगाल में मुकुल राय की ‘घर वापसी’ से बेहतर समझा जा सकता है। इसकी वजह बीजेपी में रहते हुए कोई व्यक्तिगत गांठ है या तृणमूल से जुड़ा कोई व्यक्तिगत हित, दोनों के बीच की लकीर इतनी बारीक है कि फर्क करना मुश्किल है। प्रदेश में बीजेपी के साथ चार साल विपक्ष में गुजारने के बाद अगले पांच और साल संघर्ष करने के बजाय मुकुल राय को शायद सत्ता से जुड़कर प्रदेश की सेवा करने का रास्ता ज्यादा पसंद आया होगा। पिछले साल मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया और सबसे हाल में उत्तर प्रदेश में जितिन प्रसाद तक के मामलों में दल बदलते वक्त सेवा का यह भाव प्रमुखता से मुखर हुआ है। यह एक अलग बहस का विषय भी हो सकता है कि क्या आज सत्ता में रहते हुए ही जनता की सेवा संभव है। बहरहाल, सेवा के साथ इसके और आयाम भी होते हैं। जैसे मुकुल राय के बारे में मशहूर है कि बंगाल में उनकी बूथ लेवल तक पकड़ है और पिछले लोक सभा चुनाव में प्रदेश में अच्छे प्रदशर्न में बीजेपी ने उनके इसी हुनर का उपयोग किया था। अब यह हुनर फिर से ममता बनर्जी के पक्ष में काम करेगा और आने वाले दिनों में कई और सांसदों और विधायकों की तृणमूल में वापसी देखने को मिल सकती है। लेकिन बीजेपी के लिए शायद वो कार्यकर्ता भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं होंगे, जिनके मन बदलने से प्रदेश में बड़ी मेहनत से तैयार किए गए उसके संगठन की तस्वीर भी बदल सकती है। यह उस ‘ऑपरेशन ग्रास फ्लावर’ की पहली सीढ़ी बन सकता है, जिसके तहत ममता बनर्जी ने विधानसभा चुनाव के प्रचार के दौरान ‘एक पैर से बंगाल, दो पैर से दिल्ली’ जीतने का ऐलान किया था।
बिहार की राजनीति में उठापटक
देश के पूरब से पश्चिम का सफर शुरू करें, तो बंगाल से सटे बिहार की राजनीति में भी खूब उठापटक हो रही है। लोक जनशक्ति पार्टी में तोड़-फोड़ भले ही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की व्यक्तिगत बदला लेने की महत्त्वाकांक्षा का परिणाम बताई जा रही है, लेकिन इसमें प्रदेश की सियासत में सतह के नीचे चल रही उथल-पुथल और उससे जुड़ी दलित राजनीति के अंडर-करंट का भी योगदान है। बिहार में दलित राजनीति मार्क्सवाद और वर्ग संघर्ष की लड़ाई को लेकर आगे बढ़ी और फिर जब मार्क्सवाद कमजोर पड़ने लगा तो इसने मुख्यधारा की राजनीति का रुख कर लिया। रामविलास पासवान से लेकर हम के मुखिया जीतनराम मांझी और वीआईपी के मुकेश सहनी को भी सत्ता के गलियारे बड़े पसंद रहे हैं। दलित राजनीति को ये कितना प्रभावित करते हैं, यह अलग बात है, लेकिन फिलहाल तो मांझी और सहनी, दोनों प्रदेश में जेडीयू-बीजेपी की साझा सरकार की मजबूरी बने हुए हैं। खासकर पिछले कुछ दिनों से आरजेडी के लिए जिस तरह मांझी का प्यार उमड़ा है, उसने नीतीश के कान खड़े कर दिए होंगे। बीजेपी को लेकर मांझी ने पहले से ही कमोबेश वैसे ही तेवर अपनाए हुए हैं, जैसे विधानसभा चुनाव में चिराग पासवान ने नीतीश के लिए अपनाए थे। इस सबके बीच जेल से छूटने के बाद दिल्ली में बेटी के घर से बिहार की पॉलिटिक्स में ‘वर्क फ्रॉम होम’ कर रहे लालू यादव की सक्रियता से बिहार में कब बंगाल जैसे ‘खेला’ हो जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता।
उत्तर प्रदेश में भाजपा सावधान
इसी आशंका ने उत्तर प्रदेश में बीजेपी को सावधान कर दिया है। उत्तर प्रदेश में अगले साल विधानसभा चुनाव हैं और जिस तरह मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर भरोसा जताते हुए भी पार्टी नेतृत्व के स्तर पर बीते दिनों ‘रायशुमारी’ की गई, वो बताती है कि अंदरखाने जीत को लेकर पार्टी ज्यादा ‘ओवरकॉन्फिडेंट’ होने की हालत में नहीं है। जितिन प्रसाद को साथ लाकर बीजेपी ने एक तीर से योगी राज में रु ठे ब्राह्मणों का भरोसा जीतने और कांग्रेस का भरोसा तोड़ने वाले दो शिकार किए हैं, लेकिन यह बीजेपी भी जानती है कि प्रदेश में उसका मुख्य मुकाबला कांग्रेस से नहीं समाजवादी पार्टी से होगा जिसने पंचायत चुनाव में बेहतर प्रदशर्न किया है। हालांकि ऐसा इसलिए नहीं हुआ कि एसपी ने जमीन पर कोई कमाल कर दिया हो, बल्कि इसके पीछे किसान आंदोलन से उपजी नाराजगी बड़ी वजह है। लेकिन नतीजों से उत्साहित होकर एसपी ने जिस तरह अब राष्ट्रीय लोक दल और चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी के साथ गठबंधन की तैयारी शुरू कर दी है, वो जरूर बीजेपी का सिरदर्द बढ़ा सकती है। ऐसे में योगी आदित्यनाथ को ही चुनाव का चेहरा बनाने का बीजेपी का फैसला समझदारी-भरा कहा जाएगा, क्योंकि विपक्ष ही नहीं, सत्ता पक्ष में भी ऐसा कोई दूसरा नेता नहीं है, जो योगी की तरह अपने दम पर बीजेपी की नाव को किनारे लगाने का भरोसा जगा सके।
दिखेगा किसान आंदोलन का असर
200 दिन पूरे कर चुके किसान आंदोलन की आग केवल पश्चिम उत्तर प्रदेश ही नहीं, हरियाणा और पंजाब की सियासत में भी अपना असर दिखाएगी। हरियाणा में तो फिलहाल विधानसभा चुनाव दूर हैं, लेकिन आने वाले दिनों में स्थानीय निकायों में इसका परिणाम दिख जाएगा। मसला पंजाब का ज्यादा गंभीर है, जहां किसान आंदोलन के साथ ही लगभग हर पार्टी में ‘दोलन’ के हालात हैं। नवजोत सिंह सिद्धू के लिए कांग्रेस आलाकमान के सॉफ्ट कॉर्नर के बीच कैप्टन अमरिन्दर सिंह और पार्टी में ही उनके कट्टर विरोधी प्रताप सिंह बाजवा ने हाथ मिला लिया है। आलाकमान सिद्धू को डिप्टी सीएम बनाने तक के लिए तैयार है, लेकिन सिद्धू कैप्टन के डिप्टी बनने को तैयार नहीं हैं, उनकी नजर प्रदेश अध्यक्ष के पद पर है। लेकिन कैप्टन और बाजवा बीजेपी से आए नेता को इतनी तरजीह देने के खिलाफ हैं। कांग्रेस को चुनौती बाहर से भी मिल रही है। शिरोमणि अकाली दल ने 25 साल बाद एक बार फिर बीएसपी से हाथ मिला लिया है। इस गठबंधन के जरिए पंजाब में सिख-जाट + दलित समीकरण बनाने की कोशिश दिखती है। शायद ज्यादा लोगों को यह बात मालूम न हो कि पंजाब देश की सबसे ज्यादा दलित आबादी वाला राज्य है, लेकिन सबसे बड़ी दलित पार्टी को राज्य की 117 में से 20 सीटें देकर अकाली दल क्या संदेश देना चाह रहा है, यह साफ नहीं है। बात राजस्थान की करें, तो वहां सचिन पायलट कांग्रेस के ‘सिद्धू’ बने हुए हैं। यह और बात है कि इस बार की उनकी नाराजगी में तख्तापलट कर पाने की पुरानी वजनदारी नदारद है और इसीलिए उन्हें सिद्धू जितनी तवज्जो नहीं मिल पा रही है। छह दिन दिल्ली में बिताने के बाद आलाकमान की ओर से उन्हें समर्थकों के लिए कैबिनेट में तीन पद और खुद सचिन को केंद्रीय संगठन में महासचिव बनाने के साथ ही राज्य का प्रभारी बनाने का भी ऑफर दे दिया गया है। फैसला सचिन को करना है कि वो सिंधिया या जितिन प्रसाद वाला रास्ता अपनाएं या फिर आलाकमान का ऑफर स्वीकार कर कांग्रेस के अनुशासित सिपाही की पुरानी परंपरा को बनाए रखने का काम करें।
इन सबमें महाराष्ट्र और कर्नाटक की अटकलबाजियों को भी जोड़ लिया जाए, तो सवाल उठता है कि क्या इस हलचल का कोई राष्ट्रीय असर भी देखने को मिल सकता है। देश को प्रभावित करने वाले मसलों का भी संज्ञान लिया जाए, तो क्या किसान आंदोलन और कोरोना का प्रबंधन केंद्रीय राजनीति को प्रभावित करने की स्थिति में है? एनसीपी नेता शरद पवार की चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर से मुलाकात ने दरअसल इन सवालों को आधार देने का काम किया है। इस मुलाकात से क्या निकला, यह तो फिलहाल स्पष्ट नहीं हो सका है, लेकिन इतना अवश्य है कि बीजेपी को राष्ट्रीय स्तर पर चुनौती देने के लिए एक गैर-कांग्रेसी गठबंधन या फिर कांग्रेस की सीमित भूमिका वाले गठबंधन की तैयारी जरूर शुरू हो गई है। यह कितना आगे तक जाएगी, यह समय के साथ ही साफ होगा। यह सवाल भी रहेगा कि अगर ऐसी कोई युति काम करती भी है, तो क्या वो पिछले सात साल से सरकार के सबसे बड़े सुरक्षाकवच बने हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की स्वीकार्यता में कोई सेंध लगा पाएगी? बड़ा सवाल यह भी रहेगा कि क्या नेताओं के इस तरह पाला बदलने से देश की राजनीति भी बदल पाएगी?
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