वापस लौटा तालिबान, अफगानिस्तान हलकान, दुनिया परेशान
अफगानिस्तान का अतीत एक बार फिर दुनिया के भविष्य पर सवाल उठा रहा है। अमेरिकी सेना की वापसी के साथ तालिबान दिन-ब-दिन अफगानी सेना की चौकियों पर कब्जा जमा कर अपनी पकड़ मजबूत कर रहा है। दावा तो यह है कि अफगानिस्तान के 85 फीसद भू-भाग पर इस्लामिक अमीरात का झंडा फहरा रहा है।
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हालांकि इसकी कोई आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है, लेकिन यह भी हकीकत है कि पूरे अफगानिस्तान पर अपनी हुकूमत कायम करने के लिहाज से तालिबान रोज कोई-न-कोई अहम कामयाबी दर्ज कर रहा है और अगर सिलसिला यूं ही चलता रहा तो 31 अगस्त को अमेरिकी सेना की मुकम्मल वापसी के साथ ही अफगानिस्तान की सत्ता पर तालिबानी शासन की भी पूरी तरह से वापसी हो जाएगी।
सवाल है कि कहीं इस बदलाव के बाद अफगानिस्तान आगे बढ़ने के बजाय वापस पिछली सदी के पुराने दौर में तो नहीं लौट जाएगा? जिस तरह आज अमेरिकी सेना अफगानिस्तान से अपने पैर पीछे कर रही है, उसी तरह सोवियत संघ की सेना को लौटना पड़ा था और साल 1996 से लेकर अक्टूबर, 2001 तक अफगानिस्तान तालिबानी कब्जे में रहा था। इस दौरान अफगानिस्तान में इस्लामिक तौर-तरीकों को इतनी सख्ती से लागू किया गया कि पूरी दुनिया में किसी भी तरह के गैर-कानूनी और मनमाने घटनाक्रम को तालिबानी नाम दिया जाने लगा। हत्या और व्यभिचार के दोषियों को सार्वजनिक तौर पर फांसी और चोरी के मामले में दोषियों के अंग-भंग करने जैसी सजाएं आम हो गई थीं। पुरु षों के लिए दाढ़ी रखना जरूरी कर दिया गया था। महिलाओं को पूरा शरीर ढंकने वाले बुर्के में कैद रहना होता था और दस साल से बड़ी उम्र की लड़िकयों के स्कूल जाने पर रोक थी। टेलीविजन, संगीत और सिनेमा पर भी पाबंदी थी। यह तो हुई घर के अंदर की बात, बाहर की दुनिया को अपने कट्टरपंथ का संदेश देने के लिए तालिबान ने बामियान की वि प्रसिद्ध बुद्ध की मूर्तियों को भी तोप के गोलों से उड़ा दिया था।
तालिबान जमा रहा है सिक्का
अब जबकि मध्ययुगीन आक्रांताओं की तरह तालिबान फिर अफगानिस्तान में अपना सिक्का जमा रहा है, तो दुनिया के समीकरण भी बदल रहे हैं। इसका सीधा असर उसके पड़ोसी पाकिस्तान, रूस, चीन, ईरान और तुर्की के साथ-साथ भारत पर भी पडेगा। जहां अधिकतर देश इसे बिन-बुलाई आपदा मान रहे हैं, वहीं अमेरिकी फौज की अफगानिस्तान से वापसी को विस्तारवादी चीन सुनहरे अवसर की तरह देख रहा है। चीन लंबे समय से अपनी वन बेल्ट वन रोड परियोजना को पेशावर और काबुल तक ले जाने की ताक में था। इसके लिए उसने हाल ही में भारी भरकम खर्च करने का ऐलान भी कर दिया था। ये सब करने के लिए चीन अफगान सरकार से बातचीत करने के साथ ही पर्दे के पीछे तालिबान से भी डील कर रहा था। अफगानिस्तान से सटे शिनिजयांग प्रांत में उइगर इस्लामिक आतंकवाद को बढ़ावा नहीं देने की बात कह कर तालिबान ने उसकी एक और टेंशन खत्म कर दी है।
तालिबान के साथ रूस के संबंध भी कमोबेश ठीक-ठीक हैं। वो उज्बेकिस्तान और तजाकिस्तान के माध्यम से काबुल में सक्रिय रहा है और नॉर्दर्न अलायंस की वजह से भी अफगानिस्तान के संपर्क में है। लेकिन उसकी चिंता की वजह है कि कहीं इस्लामी कट्टरवाद उसके सीमांत प्रदेशों को चपेट में न ले ले। इसलिए तालिबान से अच्छे संबंध बनाना रूस की भी मजबूरी है। इस उथल-पुथल से पाकिस्तान के खुश होने की बहुत सी वजहें हैं। पिछली बार जब तालिबान सत्ता में आया था, तो सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के अलावा उन्हें मान्यता देने वाला तीसरा देश पाकिस्तान ही था। तालिबान दोबारा पैर जमा रहा है तो पाकिस्तान को अफगानिस्तान में अपने लिए भी ‘आजादी’ दिखाई दे रही है। लंबे समय से घर में ही नकारा साबित हो रहे इमरान खान खुलेआम भारत और अमेरिका को ‘लूजर’ कह रहे हैं।
शैतानी खोपड़ी थी तालिबान के पीछे
यह बात कैसे भूली जा सकती है कि साल 1999 में हुए कंधार विमान अपहरण कांड में तालिबान ने जब भारत को ब्लैकमेल किया था, तो उसके पीछे पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई की शैतानी खोपड़ी काम कर रही थी। पिछले 20-22 वर्षो में भारत के लिए दांव अब और बड़ा हो चुका है। भारत पिछले एक दशक से अफगानिस्तान को दोबारा खड़े होने में मदद कर रहा है। इसके लिए हमने वहां सड़कों, बांधों, शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, सिंचाई, पेयजल, आवास जैसे बुनियादी क्षेत्रों में लगभग तीन अरब डॉलर का निवेश किया हुआ है। यहां तक कि काबुल में अफगानिस्तान का नया संसद भवन भी भारत की मदद से ही तैयार हुआ है लेकिन तालिबान के उभार से यह बड़ा निवेश डूबता दिख रहा है। चिंता की एक वजह यह भी है कि तालिबान के तार बीस से भी ज्यादा आतंकी संगठनों से जुड़े हैं, जिनकी जड़ें रूस से लेकर भारत तक फैली हैं। इस कारण कश्मीर सीधे तालिबान के रडार पर आ जाता है। इसमें चीन और पाकिस्तान के मंसूबों का जोड़ मिल जाता है तो अमन के रास्ते पर लौटे कश्मीर में उग्रवाद फिर सिर उठा सकता है।
सवाल उठता है कि ऐसे हालात न बनें, इसके लिए हमारी क्या तैयारी है? सरकार ने इस दिशा में राजनयिक पहल तेज कर दी है। विदेश मंत्री एस जयशंकर ने पिछले दिनों ईरान और रूस की यात्रा की है। दोनों देशों के तालिबान से बेहतर संबंध रहे हैं। ऐसे संकेत भी हैं कि पिछले दिनों भारत ने तालिबान से बैक चैनल बातचीत के रास्ते भी खोले हैं। क्या महज संयोग है कि जिस दिन विदेश मंत्री तेहरान में थे, उसी दिन तालिबान का एक प्रतिनिधिमंडल भी वहां मौजूद था। इसके बाद जब विदेश मंत्री रूस पहुंचे, तो वहां भी सूरतेहाल यही थे। दोनों मौकों पर तालिबान के सर्वोच्च नेताओं में शामिल मुल्ला बरादर मौजूद था। क्या यह भी संयोग है कि हाल ही में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में तालिबान प्रतिबंध समिति के प्रमुख के रूप में भारत ने जिन 14 अफगान तालिबान नेताओं को ट्रैवल बैन से मिली छूट को तीन महीने आगे बढ़ाया है, उनमें मुल्ला बरादर भी शामिल है। इस तरह के कदम उठाकर भारत राष्ट्रीय हितों के लिए तालिबान से पर्दे के पीछे कोई समझौता कर रहा है, तो उसमें बुराई क्या है। अफगानिस्तान के ज्यादातर पड़ोसी देश तो यह काम तब से कर रहे हैं, जब तालिबान सत्ता के आसपास भी नहीं था। संयुक्त राष्ट्र का जिक्र आया तो लगे हाथ यह पड़ताल भी कर ली जाए कि इस संकट को सुलझाने में उसकी क्या भूमिका हो सकती है? शांति की अपील के अलावा संयुक्त राष्ट्र ज्यादा से ज्यादा वहां कोई शांति दल भेज सकता है। लेकिन संयुक्त राष्ट्र शांति की स्थापना ऐसे ‘इको-सिस्टम’ में करता है जहां शांति बनाए रखना हो, वहां नहीं जहां शांति ही न हो। इसके लिए इस क्षेत्र की जियो पॉलिटिक्स को समझना जरूरी है। संयुक्त राष्ट्र के झंडे के नीचे चीन अपने शांति सैनिक भेज सकता है, लेकिन पाकिस्तान इस संघर्ष में एक प्रॉक्सी है जो उसकी तटस्थता को कटघरे में खड़ा करता है। यह भी मानना होगा कि फिलहाल की स्थिति में तो तालिबान भारतीय सैनिकों को भी अफगानी जमीन पर देखना नहीं चाहेगा। ऐसे में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका बड़ी सीमित दिखती है।
क्या कोई तिकड़म लग सकती है?
तो क्या तालिबान के प्रति नरम रुख रखने वाले देश कोई तिकड़म लगा सकते हैं? ऐसा लगता नहीं, क्योंकि चीन जैसे देश खुद अपने लिए अवसर तलाश रहे हैं, तो ईरान जैसे मुस्लिम देश खुद अपनी सीमाओं को सुरक्षित करने में लगे हुए हैं। जब तक अमेरिकी सेना की सुरक्षित वापसी नहीं हो जाती, तब तक वो खुद और उसके मित्र देश भी खामोश ही बने रहेंगे। इस मामले में हाल के दिनों में खिलाफत का खलीफा बनने के लिए बेचैन दिख रहे तुर्की का रोल दिलचस्प हो सकता है। तुर्की नाटो का सदस्य भी है और उस पर काबुल एयरपोर्ट की सुरक्षा की जिम्मेदारी है। कश्मीर पर बयानबाजी कर उसने बेवजह भारत से तनाव मोल लिया था, लेकिन अफगानिस्तान इस मामले में ‘टर्निग प्वाइंट’ हो सकता है। अफगानिस्तान में गृह-युद्ध होगा तो पाकिस्तान तालिबान का साथ देगा और तुर्की अफगान सरकार का। यह स्थिति तुर्की और भारत के करीब आने की जमीन तैयार कर सकती है। ऐसे में भारत, रूस और ईरान को तुर्की का साथ मिल जाता है, तो इनकी बनाई साझा नीति ज्यादा असरदार साबित हो सकती है। तुर्की की मौजूदगी चीन पर पाकिस्तान की निर्भरता को कम करने और उसे पश्चिमी देशों के करीब लाने का दबाव बनाने में भी कारगर साबित हो सकती है। बहरहाल, ये तमाम गुणा-भाग उस स्थिति के लिए हैं, जब अफगानिस्तान पूरी तरह से तालिबान के नियंतण्रमें आ जाएगा, फिलहाल तो भारत समेत सभी देशों की प्राथमिकता अपनी-अपनी सीमाओं को तालिबानी घुसपैठ से सुरक्षित रखने की है। इसी संदर्भ में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन का 14 अप्रैल को दिया बयान प्रासंगिक हो जाता है। उस दिन बाइडन ने जब अपनी जनता को अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों को वापस बुलाने के फैसले की जानकारी दी, तो उन्होंने अहम बात और जोड़ी थी। यह कि आने वाले वक्त में अमेरिका या उसके सहयोगी देशों के खिलाफ अफगानी धरती से किसी भी तरह की आतंकी गतिविधि के लिए तालिबान जिम्मेदार होगा। अब यह साफ नहीं है कि यह तालिबान को अमेरिका की धमकी है या उसे 9/11 का सबक सिखाने के बाद अमेरिका का भरोसा कि वो दोबारा ऐसी हिमाकत नहीं करेगा। सवाल यह भी है कि तालिबान पर कितना भरोसा किया जा सकता है?
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