कोरोना : खिलाड़ियों पर मार
कोरोना महामारी ने देश में किसी भी व्यक्ति को नहीं बख्शा। उसकी वजह से हुए लॉकडाउन ने सभी की कमर ही तोड़ डाली।
कोरोना : खिलाड़ियों पर मार |
इसका असर हमारे देश के कई खिलाड़ियों पर भी पड़ा है, जिनकी चर्चा शायद इस वक्त कम हो रही है। खेल के आयोजन लगभग बंद से हो गए हैं। प्रतियोगिताएं बंद हो चुकी हैं, और भीड़भाड़ की वजह से बड़े-बड़े मैच प्रतिबंधित कर दिए गए हैं। लॉकडाउन ने अपना ऐसा असर दिखाया कि हमारे देश में खेल का भविष्य ही बिगड़ गया है। जो खिलाड़ी देश का नाम रोशन कर रहे थे और हमारा गौरव बढ़ा रहे थे, उनके हालात ऐसे हो गए हैं कि उन्हें अपने और अपने परिवार का जीवन यापन करने के लिए रिक्शा चलाने, सब्जी बेचने या रेहड़ी लगाने पर मजबूर होना पड़ा है। कोरोना महामारी की वजह से पैदा हुई इस असहज स्थिति ने खिलाड़ियों को हर दृष्टिकोण से प्रभावित किया है। उन्हें शारीरिक, मानसिक और आर्थिक क्षति पहुंचाई है।
खबर है कि उत्तर प्रदेश पारा क्रिकेट टीम के कप्तान राजा बाबू ने अपने परिवार का पेट पालने के लिए मजबूरी में ई-रिक्शा चलाना शुरू कर दिया। जालौन निवासी राजा बाबू बचपन में ही रेल दुर्घटना में अपना बायां पैर गंवा बैठे थे। क्रिकेट के प्रति उनके प्रेम और जुनून ने जिंदगी में उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया और वे एक दिन सफल क्रिकेट खिलाड़ी बन गए। उन्होंने बोर्ड ऑफ डिसेबल्ड क्रिकेट एसोशिएशन यानी बीडीसीए से मान्यताप्राप्त उत्तर प्रदेश टीम के कप्तान बनने तक का सफर तय किया। मगर आर्थिक रूप से वे मजबूत नहीं बन सके। लॉकडाउन ने उनकी मुश्किलें और बढ़ा दीं। इन दिनों वे ई-रिक्शा चलाकर अपने परिवार का पोषण करने को मजबूर हैं तथा आर्थिक संकटों से जूझ रहे हैं। स्थानीय प्रशासन या राज्य सरकार भी उन्हें अनदेखा कर रही है।
राजा बाबू जैसे देश भर में कई ऐसे खिलाड़ी हैं, जिन्हें घोर आर्थिक संकट का सामना करना पड़ रहा है। खासकर कोरोना काल ने उन्हें बहुत नुकसान पहुंचाया है। उनकी खेल की प्रैक्टिस भी छूट गई है। इस प्रकार जिले या राज्य स्तर के विभिन्न खेलों के सैकड़ों उभरते खिलाड़ियों की प्रतिभाएं कुंद हो रही हैं। कई खिलाड़ी गरीबी और अभाव में जीने को मजबूर हैं। मगर कोई सरकारी या गैर-सरकारी संस्था उनकी सुध लेने वाली नहीं है, जबकि जिले से लेकर देश स्तर तक कई सक्रिय खेल संस्थाएं हैं, जो उन्हें आर्थिक मदद प्रदान कर सकती हैं, उनके हौसले को टूटने से बचा सकती हैं। उत्तर प्रदेश की ही बात करें तो कई छोटे-बड़े खिलाड़ियों की हालत बदतर है। उभरती हुई कई प्रतिभाएं गुमनामी के अंधेरों में गुम होती जा रही हैं। मेरठ के नेशनल स्तर के दो युवा खिलाड़ी अब सब्जी बेचने पर मजबूर हैं। असल में वहां के कैलाश प्रकाश स्पोर्ट्स स्टेडियम के अंदर पिछले 20 सालों से खिलाड़ियों के लिए रसोई बनाने वाले अच्छे लाल चैहान को स्टेडियम के छात्रावास से जब निकाल दिया गया तो उनके सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया। अव वे स्टेडियम के तिराहे पर सब्जी बेचने को मजबूर हैं। उन्होंने काफी मशक्कत से अपने दो बेटों को नेशनल स्तर का खिलाड़ी बनाया था। सुनील चैहान बॉक्सिंग और नीरज चौहान तीरंदाजी की प्रतियोगिता में कई मेडल जीत चुके हैं। ये दोनों बेटे भी मुफलिसी में अपने पिता के काम में हाथ बंटाने का कार्य कर रहे हैं।
ठीक इसी प्रकार अयोध्या मंडल की क्रिकेट खिलाड़ी अदबिया बानो के पिता ई-रिक्शा चला रहे हैं। सहारनपुर की क्रिकेट टीम के कप्तान मनु के पिता सिक्यूरिटी गार्ड हैं। तेज गेंदबाज सिराज ने अपने पिता की मौत के बाद ऑटो रिक्शा चलाना शुरू कर दिया है। ऐसी कई उभरतीं खिलाड़ी बेटियां भी हैं, जो रिक्शा चालक या रेहड़ी-पटरी लगाकर गुजारा करने वाले परिवारों से ताल्लुक रखती हैं। वे भी खेल के मैदान में अपना पसीना बहा रही थीं। उत्तराखंड के नेशनल व्हीलचेयर क्रिकेटर की दुर्दशा भी बेहद चिंताजनक है। जवाहर नगर की टीम के खिलाड़ी दिव्यांग सुबोध कुमार ई-रिक्शा चलाकर परिवार का भरण-पोषण कर रहे हैं।
ऐसे कई उदाहरण हैं, जिन पर सरकार को सजग होने की जरूरत है। लेकिन अफसोस कि केंद्र सरकार या राज्य सरकारों के खेल मंत्रालय इस मामले में चुप्पी साधे हुए हैं। वक्त का तकाजा है कि केंद्र सरकार या राज्य सरकारें संयुक्त रूप से मिलकर ऐसी नीति बनाएं जिससे इन होनहार खिलाड़ियों को आर्थिक सुरक्षा और संरक्षा प्रदान की जा सके। और ये खिलाड़ी अपने खेलों में सुधार लाने के लिए बिना किसी चिंता के अपने समय को लगा सकें।
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