नोटबंदी : हासिल नहीं हुआ नतीजा
पूरे एक साल पहले, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पांच सौ रुपये और एक हजार रुपये के नोटों, जो प्रचलन में कुल करंसी का 86 प्रतिशत थे, को चलन से बाहर करने के कड़े फैसले की घोषणा की.
नोटबंदी : हासिल नहीं हुआ नतीजा |
यह अप्रत्याशित कदम काले धन के खात्मे, आतंकवाद पर रोक लगाने और जाली करंसी नोटों से पार पाने की गरज से उठाया बताया गया था. बाद में सरकार ने नकदीरहित अर्थव्यवस्था की तरफ कदम बढ़ाने के तौर पर किए उपाय के तौर पर इसे गिनाया जबकि मोदी के 8 नवम्बर के भाषण में इस बात का उल्लेख नहीं था. एक साल बाद, हम नोटबंदी के घोषित लक्ष्यों और अर्थव्यवस्था पर इसके प्रभावों का आकलन किस रूप में करते हैं.
अनेक लोगों को उम्मीद थी कि प्रतिबंधित नोटों का बड़ा हिस्सा 4-5 लाख करोड़ रुपये बैंकिंग प्रणाली में लौट आएगा. वापस नहीं लौटा धन काले धन की अर्थव्यवस्था की विशुद्ध क्षति होगी और आरबीआई का फायदा क्योंकि इतने नोटों के प्रति उसकी देनदारी खत्म हो जाएगी. मोदी ने अपने एक भाषण में कहा था कि धनवान लोग अपने नोटों को गंगा नदी में फेंक रहे हैं. लेकिन निराशाजनक बात यह रही कि बढ़ा-चढ़ा कर कही गई इन तमाम बातों के विपरीत भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की 30 अगस्त को प्रकाशित वाषिर्क रिपोर्ट, 2016-17 से पता चला कि प्रतिबंधित 15.44 लाख करोड़ के नोटों में से 15.28 लाख करोड़ यानि 99 प्रतिशत नोट बैंकों में वापस लौट आए. इससे जमा नहीं कराए जाने वाले नोटों के प्रति आरबीआई की देनदारी नहीं रहने का दावा भी बेमानी साबित हो गया.
ऐसे में इस शर्मिदगी के रूबरू मोदी सरकार ने दावा किया कि इतने नोट लौट आने के बावजूद वह काले धन को खोज निकालेगी और कर संग्रह बढ़ाने में सफल होगी. लेकिन आंकड़े क्या कहते हैं? आर्थिक सव्रेक्षण के मुताबिक, विमुद्रीकरण के चलते 10,587 करोड़ रुपये का अधिक कर वसूला जाएगा. इसी रिपोर्ट से पता चलता है कि 2016-17 में जीडीपी में वसूले गए करों का हिस्सा 11.1 प्रतिशत था. अनुमान था कि 2017-18 में मामूली बढ़त के साथ यह 11.3 प्रतिशत तक ही पहुंच सकेगा. यह बढ़ोतरी मात्र 0.2 प्रतिशत थी. व्यक्तिगत आयकर और जीडीपी का अनुपात 2016-17 और 2017-18 के मध्य 2.2 प्रतिशत से मामूली बढ़कर 2.6 प्रतिशत हो जाएगा.
जब्त काला धन (मई, 2017 तक 1,003 करोड़ रुपये), जब्त बेनामी सपंत्ति (600 करोड़ रुपये) या मुखौटा कंपनियां द्वारा धनशोधित चिह्नित धन (बताया जाता है 17 हजार करोड़ रुपये) कोई इतनी बड़ी धनराशि नहीं है, जिसे उपलब्धि के तौर पर गिनाया जा सके. सरकार का कहना है कि भविष्य में काले धन को खोज निकाला जाएगा. उसे जब्त कर लिया जाएगा. जैसे कि कहा जा रहा हो कि अभी हम आपको अगली तारीख का चैक दे रहे हैं. लेकिन इस तथ्य से बाखबर नहीं है कि इसका अनादर भी हो सकता है क्योंकि अधिकांश मामलों को अदालत में चुनौती दी जा सकती है.
विमुद्रीकरण से आतंकी हमलों पर रोक लगाने संबंधी दावा भी पूरी तरह से झूठा साबित हुआ है. साउथ एशिया टेररिज्म पोर्टल के मुताबिक, 2016 में आतंकी घटनाओं में भारत में 382 लोग (नागरिक और सैनिक) मारे गए. लेकिन 2017 में 29 अक्टूबर तक यह संख्या 315 थी. संक्षेप में कहें तो विमुद्रीकरण के परिणामस्वरूप आतंकी घटनाओं पर कोई स्पष्ट प्रभाव नहीं पड़ा है. दरअसल, आतंकवाद एक जटिल सामाजिक-राजनीतिक मुद्दा है, जिसे केवल नकदी से ही पोषित नहीं किया जाता बल्कि भुगतान के अन्य अत्याधुनिक तरीकों से भी पोषित किया जाता है. आतंक भरपाने के काम में लगे लोगों ने नोटबंदी के चलते अपने तौर-तरीके बदल लिए हैं. अब वे भुगतान के अन्य तरीकों का इस्तेमाल करते बताए जाते हैं.
इसलिए यह कहना अतिश्योक्ति है कि करंसी को प्रतिबंधित कर देने मात्र से आतंकवाद का सफाया किया जा सकता है. नोटबंदी से जाली करंसी नोटों की बुराई के खात्मे संबंधी मोदी का दावा भी गलत साबित हुआ है. आरबीआई की वाषिर्क रिपोर्ट के मुताबिक, नोटबंदी के बाद जमा कराए पांच सौ और एक हजार रुपये के कुल नोटों में से मात्र 41.5 करोड़ रुपये के नोट ही जाली पाए गए जो कुल जमा कराए नोटों का मात्र 0.003 प्रतिशत हैं. इतनी मामूली राशि की करंसी पकड़ने के लिए 86 प्रतिशत मुद्रा को चलन से बाहर कर देने का बेहद बेतुका ही कहा जाएगा. जहां तक नकदीविहीन लेन देन का प्रश्न है, तो भारत के आंकड़ों को देखें तो पाएंगे कि दिसम्बर, 2016 में अपने सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंचने के पश्चात डिजिटल भुगतान फिर से कम होने के क्रम में है. यह फिर सितम्बर-अक्टूबर, 2016 के स्तर पर लौट आया है. यह भी ध्यान रखा जा सकता है कि एटीएम से धन निकालने का स्तर भी नोटबंदी से पहले के स्तर पर लौट आया है. इन रुझानों से पता चलता है कि जनसंख्या का काफी बड़ा हिस्सा अभी भी नकदी में लेन देन से विरत नहीं हुआ है.
जहां विमुद्रीकरण अपने लक्षित उद्देश्यों को पूरा करने में नाकाम हुआ है, वहीं अर्थव्यवस्था पर भी इसने खासा विपरीत प्रभाव छोड़ा है. 2017-18 की दूसरी तिमाही में जीडीपी की वृद्धि दर गिर कर 5.6 प्रतिशत के स्तर पर आ गई जो बीते तीन वर्षो में सर्वाधिक नीची दर है. इससे असंगठित क्षेत्र को खासा झटका लगा है. यह क्षेत्र ही वह क्षेत्र है जहां सर्वाधिक लोगों को रोजगार मिला हुआ है. इसके अतिरिक्त सरकार को आरबीआई से मिलने वाले लाभांश में गिरावट भी आई है. पहले की तुलना में यह घटकर आधा हो गया है. पहले जहां यह 65,876 करोड़ रुपये था, अब 30,659 करोड़ रह गया है. नये नोटों की छपाई की अतिरिक्त लागत (4,554 करोड़ रुपये) और विमुद्रीकरण के फलस्वरूप आई जमाराशियों पर ऊंचे ब्याज के भुगतान (18,000 करोड़ रुपये) के चलते आरबीआई की बढ़ीं लागतों के कारण ऐसा हुआ है. इन नुकसानों की तुलना में बढ़ा कर-संग्रहण और काले धन की खोज के लाभ हल्के पड़ गए. समय आ गया है कि सरकार से कड़े सवाल पूछे जाएं. मांग की जाए कि इस प्रकार की दोषपूर्ण नीति को क्रियान्वित करने की जवाबदेही स्वीकारे.
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