पिछले दिनों उच्च और तकनीकी शिक्षा के सुधार के लिये एनआर नारायणमूर्ति की अध्यक्षता में बनी समिति ने अपनी रिपोर्ट योजना आयोग को दी.
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इस रिपोर्ट के अनुसार उच्च और तकनीकी शिक्षा में विदेशी निवेश को प्रोत्साहित किया जाए. साथ में उच्च शिक्षा में और निवेश बढ़ाने के लिए संस्थानों को कम कीमत पर 999 साल का पट्टा दिया जाए और उन्हें टैक्स में छूट दी जाए. इस रिपोर्ट को अगर ध्यान से देखा जाए तो पूरी रिपोर्ट में कॉरपोरेट्स को फायदा कैसे हो, इस पर विशेष जोर दिया गया है. कहीं भी उच्च शिक्षा की गुणवत्ता की बात नहीं की गई.
हम बार-बार विदेशी निवेश को आमंत्रित करने या देश में विदेशी विश्वविद्यालय खोलने की बात करते हैं लेकिन देश में उच्च और तकनीकी शिक्षा के मौजूदा ढांचे और उसकी दशा को ठीक करने के लिए कुछ नहीं करते. आज देश में हालत ऐसे हैं कि उच्च और तकनीकी शिक्षा के पिछले सत्र में पूरे देश में लगभग 2.5 लाख सीटें खाली रह गई. इस बार भी सभी सीटें भर जाएंगी, ऐसा लगता नहीं है. सबसे बड़ा सवाल यह है कि हमारे देश के नीति-नियंताओं को मौजूदा हालत क्यों नहीं नजर आते, नारायणमूर्ति कमेटी ने इस विषय में क्यों कुछ नहीं कहा? ये तो वही बात हुई कि हमारे घर के हालात ठीक नहीं है और हम विदेशी निवेश को आमंत्रित करने के लिए तुले पड़े हैं. अपने देश में स्थिति ठीक होती, तब ये बातें की जातीं तो समझ में आता.
नारायणमूर्ति की अध्यक्षता में इस समिति से उम्मीद थी कि वह उच्च, तकनीकी शिक्षा की जमीनी हकीकत को देखते हुए सिफारिशें करेगी लेकिन इस समिति ने सिर्फ निवेश आमंत्रित करने वाले उपायों और कारपोरेट्स को होने वाले फायदे पर ही अपना फोकस रखा है. इस समिति की सिफारिश के मुताबिक अगर सरकार किसी संस्थान को 999 साल के लिए पट्टा दे दे और उसे टैक्स में छूट भी दी जाए तो क्या गारंटी है कि वह संस्थान गुणवत्ता आधारित शिक्षा ही देगा? अगर वह संस्थान गुणवत्ता के बजाए सिर्फ मुनाफा कमाने पर जोर देगा तो हम क्या करेगें- इसका कोई जिक्र नहीं है.
समिति के अनुसार दुनिया के नामी विश्वविद्यालय भारत आएंगे और गुणवत्ता आधारित शिक्षा मुहैया कराएंगे पर रसायन विज्ञान के लिए 2009 में नोबेल पुरस्कार विजेता भारतीय मूल के वैज्ञानिक वेंकटेश रामाकृष्णन का कहना है कि ब्रिटेन और अमेरिका के जिन प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों ने सिंगापुर या दूसरी जगहों पर अपना कैंपस खोला है, उनमें वैसी गुणवत्ता आधारित शिक्षा नहीं मिलती जैसी वे अपने मूल कैंपस में मुहैया कराते हैं. ऐसे में बेहतर होता कि कॉरपोरेट निवेश को आमंत्रित करने के अंधानुकरण की बजाए गुणवत्ता बनाए रखने पर ध्यान दिया जाता.
विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में कैंपस स्थापित करने की अनुमति देकर भारतीय उच्च शिक्षा को विदेशी प्रतिस्पर्धा के लिए खोलने का कुछ उसी तरह असर हो सकता है जैसा कि 1991 के उदारीकरण के बाद हमारी अर्थव्यवस्था में देखने को मिला था. देश में विश्व के दूसरे दर्जे के संस्थानों का प्रवेश हो सकता है और वह भी मात्र ऐसे क्षेत्रों में जहां भारी कमाई की गुंजाइश होगी. वे अग्रणी राष्ट्रीय संस्थानों से अच्छे प्राध्यापकों को अपने संस्थान में ले जा सकते हैं और इससे गुणवत्ता पर शायद ही कोई असर पड़े. सैम पित्रोदा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय ज्ञान आयोग (एनकेसी) ने भी यह स्वीकार किया कि भारत में उच्च शिक्षा में जो संकट है, वह गहराई तक मौजूद है.
उच्च शिक्षा में कॉरपोरेट क्षेत्र की भागीदारी पर योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने विश्वविद्यालयों की मदद बंद करने और उनकी फीस बढ़ाने की वकालत कर उच्च शिक्षा महंगी होने की जमीन तैयार कर दी है. ताज्जुब की बात है कि योजना आयोग देश में उच्च शिक्षा की जमीनी हकीकत जानते हुए भी इस तरह के निर्णय क्यों ले रहा है जिससे सिर्फ शिक्षा के ठेकेदारों और कॉरपोरेट्स को फायदा हो. पिछले दिनों मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने टंडन समिति को डीम्ड विश्वविद्यालयों की जांच का जिम्मा सौंपा था, उनमें से 44 पर सवाल उठे थे कि वे शिक्षा की दुकानों में बदल गए हैं और उन्हें पारिवारिक व्यापार की तरह चलाया जा रहा है.
अब तक सवालों के घेरे में आए विश्वविद्यालयों पर आखिरी फैसला नहीं हो पाया है और शिक्षाविदों की राय में उनका व्यापार जारी है. भारत की उच्च शिक्षा प्रणाली दुनिया की सबसे बड़ी प्रणालियों में से एक है. मुल्क में इस वक्त करीब 538 विश्वविद्यालय और उच्च शिक्षा के 26478 हजार संस्थान हैं. देश का उच्च शिक्षा में जीईआर करीब 12 फीसद का है, जबकि वैश्विक औसत 23.2 फीसद है. विकसित मुल्कों में यह आंकड़ा 54.6 फीसद और एशियाई मुल्कों में 22 फीसद का है. सरकार इसे बढ़ाकर 2017 तक 21 फीसद तक लाना चाहती है. लेकिन देश में उच्च और तकनीकी शिक्षा के मौजूदा ढांचे को ठीक किये बिना यह लक्ष्य महज विदेशी निवेश और कारपोरेट्स के भरोसे नहीं हासिल किया जा सकता.
देश के कई बड़े उद्योगपति उच्च और तकनीकी शिक्षा में बेहतर रिटर्न की उम्मीद के साथ प्रवेश कर रहे हैं. फिलहाल इस क्षेत्र में निवेश सीमित है, पर रिटर्न काफी अच्छे दिख रहे हैं. यही वजह है कि कारोबारी इसमें दिलचस्पी ले रहे हैं. देश का उच्च शिक्षा क्षेत्र लगभग एक लाख करोड़ रुपये का है और उम्मीद है कि अगले तीन से पांच सालों में इसमें तीन गुना बढ़ोतरी हो सकती है. हर कंपनी इस बात का ध्यान रख रही है कि मन मुताबिक कर्मचारी चाहिए, तो दूसरे संस्थानों पर निर्भर नहीं रहा जा सकता है. कॉरपोरेट सेक्टर मुनाफे की संभावना के साथ उच्च शिक्षा क्षेत्र में अपनी भागीदारी बढ़ा रहा है. लेकिन उनकी उच्च शिक्षा के मौजूदा ढांचे को ठीक करने या देश में गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा देने की कोई कार्ययोजना नहीं है.
वास्तव में तकनीकी और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बड़े सुधार किए जाने का समय आ गया है. सिर्फ समिति और विधेयक बनाने से ही कुछ नहीं होगा बल्कि इसमें सुधार के लिए बुनियादी स्तर से काम करना होगा. देश की शैक्षणिक आधारभूत संरचना में विस्तार के लिए निजी क्षेत्र को गुणवत्ता की गारंटी के साथ ही छूट में विचार होना चाहिए. तकनीकी शिक्षा के लिए सिर्फ ज्यादा संख्या में कॉलेज खोल देने और विदेशी विश्वविद्यालयों को आमंत्रित करने से कुछ हासिल नहीं होगा बल्कि उनमें गुणवत्ता के लिए पहले से ही कठोर मानक और नियम बनाने होंगे.
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