बेवजह के विवाद
सुप्रीम कोर्ट ने पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम 1991 की वैधता से संबंधित मामले में नयी याचिकाएं दायर होने पर नाराजगी व्यक्त की।
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अदालत ने कहा नये अंतरिम आवेदन को केवल तभी अनुमति दी जा सकती है, जब कोई नया बिन्दु या नया कानूनी मुद्दा हो, जो लंबित याचिकाओं में न उठाया गया हो। प्रधान न्यायाधीश ने कहा, लोग नई याचिकाएं दायर करते रहते हैं और दावा करते हैं, उन्होंने नये आधार उठाए हैं। पीठ ने स्पष्ट कहा कि पहले तीन न्यायाधीशों की पीठ द्वारा सुनी गई लंबित याचिकाओं पर दो न्यायाधीशों की पीठ सुनवाई नहीं कर सकती।
शीर्ष अदालत ने दिसम्बर 2024 के अपने आदेश में विभिन्न हिन्दू पक्षों द्वारा दायर लगभग अट्ठारह मुकदमों में कार्यवाही को प्रभावी तौर पर रोक दिया था, जिसमें वाराणसी की ज्ञानवापी, मथुरा की शाही ईदगाह मस्जिद व संभल की शाही जामा मस्जिद समेत दस मस्जिदों के मूल धार्मिक चरित्र का पता लगाने को सव्रेक्षण की माग की गई थी।
1991 में अयोध्या में विवादित बाबरी विध्वंस के बाद देश में पूजास्थल कानून लागू किया गया था, जिसके तहत आजादी से पूर्व मौजूद किसी भी धर्म के पूजास्थल को दूसरे धर्म के पूजास्थल में नहीं बदला जा सकता। जिन लोगों ने 1991 के इस अधिनियम की वैधानिकता को चुनौती दी, उनका आरोप है यह अधिनियम हिन्दुओं के साथ ही जैनियों, बौद्धों, सिखों को अपने पूजास्थलों को पुन: प्राप्त के लिए अदालतों में जाने से रोकता है। जिन पर कट्टरपंथी बर्बर आक्रमणकारियों द्वारा आक्रमण या अतिक्रमण किया गया था।
निचली अदालतों से लेकर शीर्ष अदालत तक जनहित याचिकाओं का अंबार है। इस पर जबरन विवाद उछालने, चर्चा में आने या राजनीतिक दलों द्वारा बहुसंख्यकों को प्रभावित करने के उद्देश्य से लगातार इन विवादास्पद धार्मिक स्थलों के खिलाफ याचिकाएं दायर की जा रही हैं। इन पर आक्रामक बयानबाजियां की जाती हैं और उन्मादी धार्मिक भावनाएं भड़काने का प्रयास होता रहता है।
जनहित याचिकाओं की आड़ में न्यायालय का वक्त जाया करने और भारी धनराशि का अपव्यय करने वाली मानसिकता पर सख्ती जरूरी है। सांप्रदायिक सौहार्द व सद्भावना बनाये रखने के लिहाज से अदालतें संतुलित निर्णय लेने को स्वतंत्र हैं। अदालतों द्वारा ही धार्मिक स्थलों को संरक्षित करने व विवादों को बिला-वजह तूल देने की प्रवृत्ति को थामा जा सकता है। ताकि देश में शांति रहे व विश्व पटल पर छवि धवल बनी रह सके।
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